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क्रियावती शक्ति पर चारित्र मोहनीयकर्म का उदय अनादिकाल से अपना प्रभाव जमा रहा है अत प्रत्येक जीव की वह मानिसिक, वाचनिक और कायिक योगरूप क्रिया अनादिकाल से मिथ्याचारित्र रूप परिणत होती मायी है । जिन जीवो मे दर्शनमोहनीय कर्म की पूर्वोक्त तीन और चारित्रमोहनीय कर्म के एक भेद अनन्तानुबन्धी की पूर्वोक्त चार -- इस तरह सात कर्म प्रकृतियो का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम के रूप में अभाव हो जाता है उन जीवो मे एक ओर तो विकास को प्राप्त उक्त ज्ञानशक्ति इन्द्रियो और मस्तिष्क की सहायता से अपना पदार्थज्ञानरूप व्यापार करती हुई भी दर्शनमोहनीयकर्म का उक्त प्रकार अभाव हो जाने से निर्विकारता को प्राप्त हो जाती है अर्थात् अपनी मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानरूपता को समाप्त कर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूपता को प्राप्त हो जाती है और दूसरी ओर मन, वचन और काय की सहायता से अपना व्यापार करती हुई अर्थात् योगरूपता को प्राप्त उक्त क्रियावती शक्ति भी अनन्तानुबन्धी कर्म का उक्त प्रकार अभाव हो जाने से अपने मिथ्याचारित्ररूप व्यापार मे परिवर्तन ला देती है अर्थात् उस हालत में मिथ्याचारित्र की सकल्परूपता समाप्त होकर केवल आरम्भरूपता ही रह जाती है । इसी प्रकार उन जीवो मे आगे जैसा - जैसा चारित्र मोहनीयकर्म के दूसरे भेद अप्रत्याख्याना - वरणादि कषायो के उदय का यथायोग्य प्रकार से अभाव होता नाता है वैसा-वैसा आरम्भी पापो के त्यागरूप व्यवहार सम्यक्चारित्र का रूप उस योगरूप क्रियावती शक्ति मे आता जाता है। जिसके बल पर उक्त ज्ञानशक्ति के विकास में भी वृद्धि होतो जाती है तथा अन्त में जब दशम गुणस्थान के अन्त समय में चारित्रमोहनीयकर्म का सर्वथा उपशम या क्षयरूप से अभाव हो