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व्यक्ति व्यवहार चारित्र को शरीर की क्रिया मानते हैं वे अज्ञानी और विपरीत मिथ्यादृष्टि हैं क्योकि ऊपर कहा जा चुका है कि जीव की भाववती और क्रियावती नाम की दो शक्तिया है, इनमे से क्रियावती शक्ति की मन, वचन और काय की एकता (समन्वय) पूर्वक सकल्पी पापो का त्याग हो जाने पर आरम्भी पापो के त्याग रूप जो परिणति होती है उसका नाम ही व्यवहार सम्यक् चारित्र है शरीर की क्रिया का नाम व्यवहारसम्यक् चारित्र नहीं है। इसी तरह जिन व्यक्तियो का यह मत है कि जीव के निमित्त से होने वाली शरीर की क्रिया का नाम व्यवहार सम्यक् चारित्र है उन्हे भी अज्ञानियो को श्रेणी मे ही गर्भित किया जायगा।
इस प्रकार पूर्वोक्त यह बात अच्छी तरह निर्णीत हो जाती है कि जीव की भाववती शक्ति पर अनादिकाल से ज्ञानावरण, दर्शनावरणं और वीर्यान्तर कर्मों का प्रभाव पड रहा है लेकिन साथ में यह बात भी है कि प्रत्येक जीव मे अनादिकाल से ही इन तीनो कर्मों का समान क्षयोपशम रहता आया है अत वह भाववती शक्ति किन्ही अशो मे अनादिकाल से ही समान रूप से ज्ञान, दर्शन और वीर्यरूप मे विकसित रहती आयी है। इतनी बात अवश्य है कि प्रत्येक जीव की विकास को प्राप्त उपयुक्ताकाररूप ज्ञानशक्ति को दर्शनमोहनीयकर्म का उदय अनादिकाल से ही प्रभावित कर रहा है अत. प्रत्येक जीव अनादिकाल से ही मिथ्यादृष्टि और मिथ्याज्ञानी बन रहा है । इसी तरह जीव की क्रियावती शक्ति भी अनादिकाल से यथायोग्य मन, वचन और काय के अधीन होकर योगरूप परिणत होती आयी है और इस तरह योगरूप परिणत उस