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सर्वप्रथम तो दर्शनमोहनीय कर्म के भेद मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति के अपने-अपने समय मे होने वाले उदय मे ही कर्मबन्ध का रूप पृथक्-पृथक् होता है । अर्थात् मिथ्यात्व कर्म के उदय के साथ नियम से अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय रहता है लेकिन सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति के अपने-अपने उदय के साथ अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय का नियम से अभाव रहता है इससे एक बात तो यह सिद्ध होती है कि जीव की ज्ञान शक्ति का प्रभाव उसकी क्रिया शक्ति पर पडता है और दूसरी यह बात सिद्ध होती है कि मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति की ज्ञान को विकृत करने की शक्ति मे हीनाधिक रूप से तरतमता पायी जाती है । इस तरह मिथ्यात्व कर्म के उदय के साथ जो अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का उदय रहता है उस समय के बन्ध मे व सम्यग्मिथ्यात्व अथवा सम्यक् प्रकृति का उदय रहते हुए जो अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ के उदय का अभाव रहता है उस समय के बन्ध मे अन्तर हो जाता है । इसी तरह मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक् प्रकृति के उदय का अभाव रहते हुए जो अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ के उदय का सद्भाव रहता है उस समय के बन्ध मे भी अन्तर हो जाता है और इसी तरह दर्शन मोहनीय कर्म की मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति- ये तीन तथा चारित्रमोहनीय कर्म की अनन्तानुबन्धी कषाय के भेद क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार इस तरह सात प्रकृतियो के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम के साथ अप्रत्यानावरणादि कषाय प्रकृतियो के उदय मे जो बन्ध होता है उसमे भी अन्तर हो जाता है तथा आगे भी जैसा - जैसा अप्रत्याख्यावरण व