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क्षयोपशम हो जाता है उस जीव की विकास को प्राप्त वह उपयुक्ताकार ज्ञानरूप भाववती शक्ति तो सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानरूप परिणत हो जाती है तथा साथ ही मन, वचन और काय की अधीनता मे क्रियाशील होती हुई वह क्रियावतीशक्ति भी-जैसा-जैसा चारित्र मोहनीय कर्म के उदय का यथायोग्य रूप मे अभाव होता जाता है-वैसी-वैसी निवृत्यश के रूप मे सम्यक् चारित्र रूप परिणत होती जाती है।
इससे यह निर्णीत होता है कि जोव की विकास को प्राप्त उपयुक्ताकार ज्ञानरूप भाववती शक्ति का तो दर्शन मोहनीय कर्म के उदय मे मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानरूप व उसी दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम मे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूप परिणमन होता है तथा जीव की मन, वचन और काय की अधीनता मे क्रियाशील होती हुई क्रियावतीशक्ति का चारित्र मोहनीय कर्म के उदय मे मिथ्याचारित्ररूप और उसी चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम मे निवृत्यश के रूप मे सम्यक चारित्ररूप परिणमन होता है।
यद्यपि जीव की क्रियावती शक्ति की क्रियाशीलता स्वभावत ऊर्ध्वगमन के रूप मे होना चाहिये परन्तु जीव जव तक ससारी बना हुआ है तब तक उसकी वह क्रियावतीशक्ति यथासम्भव मन, वचन और काय की अधीनता मे ही क्रियाशील हो रही है।
जीव की क्रियावती शक्ति मन, वचन और काय की अधीनता मे जो क्रियाशील हो रही है उसका नाम आगम मे 'योग' कहा गया है । अर्थात् आगम मे यह स्पष्ट वतलाया गया है कि मन, वचन और काय के सहयोग से आत्मप्रदेशो में जो