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इनका ज्ञान जीव को अपने स्वभावभूत ज्ञान द्वारा होता है और इनका प्रतिपादन जीव शब्दो द्वारा किया करता है । इस तरह जीव का वह ज्ञान निश्चयरूप है जिसके द्वारा वस्तु के निश्चय धर्म का ज्ञान होता है और जीव का वह ज्ञान व्यवहाररूप है जिसके द्वारा वस्तु के व्यवहार धर्म का ज्ञान होता है तथा जीव द्वारा बोला गया वह शब्द निश्चयरूप है जिसके द्वारा वस्तु के निश्चय धर्म का प्रतिपादन होता है और जीव द्वारा वोला गया वह शब्द व्यवहाररूप है जिसके द्वारा वस्तु के व्यवहार धर्म का प्रतिपादन होता है । यहा यह भी समझ लेना चाहिये कि बोलना या ज्ञान करना स्वयं व्यवहाररूप है और बोलने अथवा ज्ञान करने रूप क्रिया न करते हुए अपने स्वरूप मे ही स्थिर रहना निश्चयरूप है ।
वस्तु के उक्त निश्चय व व्यवहाररूप धर्मों को आगम मे ज्ञान तथा शब्द के विषयभूत नाम स्थापना, द्रव्य और भावरूप निक्षेपो मे अन्तर्भूत किया गया है तथा उन धर्मों के ज्ञापक ज्ञान को व उनके प्रतिपादक शब्द को नयो मे अन्तर्भूत किया गया है । इसी प्रकार इन ज्ञानरूप और शब्द रूप नयो के समूह को श्रुत प्रमाण नाम से पुकारा गया है ।
यद्यपि आगम मे प्रमाण के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि - ज्ञान, मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञान के रूप मे पाच भेद स्वीकार किये गये हैं, परन्तु नय व्यवस्था केवल श्रुतज्ञानरूप प्रमाण में ही स्वीकार की गयी है । इसका कारण यह है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञान द्वारा उक्त धर्मो से विशिष्ट वस्तु का अखण्डरूप से ज्ञान होता है अत इन चारो ज्ञानो मे नयपरिकल्पना सम्भव नही है तथा श्रुतज्ञान मे नयपरिकल्पना इसलिये सम्भव है कि श्रुतज्ञान उक्त धर्मों का