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१६१ पराश्रितता ही है कल्पित, मिथ्या या कथनमात्र रूपता उपचार का अर्थ नहीं है। ____ आगे व्यवहार की हेयता और उपादेयता आदि वातो पर विचार किया जाता है । यह विचार उपर्युक्त प्रकार के निश्चय और व्यवहार धर्मो से विशिष्ट वस्तु के सम्बन्ध मे आगम द्वारा अपनायी गयी द्रव्यानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोग की व्यवस्था के आधार पर किया जा रहा है।
द्रव्यानुयोग की व्यवस्था द्रव्यानुयोग का सम्बन्ध वस्तु के द्रव्याश और पर्यायाश के रूप मे निश्चय और व्यवहार धर्मों से है । अर्थात् पूर्व मे वतलाया जा चुका है कि विश्व की प्रत्येक वस्तु मे उसके स्वत सिद्ध और प्रतिनियत स्वरूप सामान्य की अपेक्षा द्रव्याश के रूप मे विद्यमान त्रैकालिक ध्रुवता का नाम निश्चय है और उसमे सतत प्रवर्तमान स्वप्रत्यय व स्वपरप्रत्य पर्यायाशो के रूप मे विद्यमान उत्पाद और व्यय का नाम व्यवहार है ।
इसका फलितार्थ यह है कि प्रत्येक वस्तु सर्वदा अपने स्वत सिद्ध स्वरूप को सुरक्षित रखकर अनादिकाल से स्वप्रत्ययता और स्वपरप्रत्ययता के आधार पर स्वकीय एकक्षणवर्ती और अनेकक्षणवर्ती पर्यायो के परिवर्तन के रूप मे अनादिकाल से उत्पाद तथा व्यय का रूप धारण करतो आ रही है और उत्पाद तथा व्यय की यह प्रक्रिया प्रत्येक वस्तु मे अनन्तकाल तक चलती ही जायगी। प्रत्येक वस्तु के स्वप्रत्यय उत्पाद और व्यय का रूप पूर्व मे स्वभावभूत अगुरु लघुगुण के अविभागी शक्त्यशो मे षड्गुण हानिवृद्धि के रूप मे बतलाया जा चुका है तथा स्वपरप्रत्यय उत्पाद और व्यय का रूप भी पूर्व मे इस