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प्रदेशबन्ध का कारण होता है । इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि स्वभावभूत व्यवहार न तो कभी छूटता ही है और न उसके छोडने की आवश्यकता हो है ।
करणानुयोग की व्यवस्था
करणानुयोग का सम्वन्ध पुद्गल के साथ वद्धजीव के यथायोग्य परिणमनो के निमित्त से होने वाली पुद्गल की कर्म रूप और नोकर्मरूप अवस्थाओ से तथा जीव के साथ बद्धपुद्गल की कर्म और नोकर्मरूप अवस्थाओं के निमित्त से होने वालो जीव की रागादिरूप अवस्थाओ से है । जीव और पुद्गल की अन्य अवस्थाओ से करणानुयोग का कोई सम्बन्ध नही है और न आकाश, धर्म, अधर्म तथा कालद्रव्यों से ही इसका कोई सम्बन्ध है | चूकि पुद्गलद्रव्य अचेतन होने के कारण अपनी उक्त वद्धदशा और उससे होने वाली कर्म तथा नोकर्मरूप अवस्थाओं का वेदन नही कर सकता है अत: उसकी वह
दशा का चिन्ता का विषय नही है, परन्तु जीव चेतन होने के कारण अपनी उक्त वद्धदशा और उससे होने वाली रागादिरूप अवस्थाओं का सतत वेदन किया करता है तथा इस वेदन के आधार पर वह कदाचित् सुखी और कदाचित् दुखी भी होता रहता है अत उसकी उक्त वद्धदशा चिन्ता का विषय है ।
जीव की पौद्गलिक ज्ञानावरणादि कर्मों और शरीरादि नोकर्मों के साथ विद्यमान वद्धता का नाम ससार है और उससे जीव का छुटकारा पा जाना मोक्ष है । इनमे से ससार निश्चय और व्यवहार के विकल्पो मे से व्यवहार कोटि मे समाविष्ट होता है क्योकि इसमे विद्यमान जीव अपने अस्तित्व को कर्मों तथा नोकर्मों से पृथक् रूप मे (अवद्धरूप मे) नही रख पा रहा