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कल्पित सद्भाव मानने से उसके निमित्त से होने वाली जीव की ससार अवस्था को तथा पुद्गल की कर्मरूप अवस्था को कल्पित (अभावात्मक) ही मानना होगा जब कि प० फूलचन्द जी जीव की ससार अवस्था को वास्तविक (सद्भावात्मक) स्वीकार कर चुके है। ससार अवस्था विभावरूप है स्वभावरूप नही है - यह बात निर्विवाद है ।
(३) तीसरी आपत्ति यह है कि यदि कर्म और आत्मा क़ा सश्लेषरूप सम्बन्ध सद्भावात्मक न होकर कल्पित (अभावात्मक ) है तो इसी के समान दो आदि पुद्गल - परमाणुओ के परस्पर सश्लेषरूप सम्बन्ध को भी कल्पित ( अभावात्मक ) मानने का प्रसङ्ग उपस्थित होगा । ऐसी हालत मे विश्व के घटादि पदार्थों की प्रत्यक्ष सिद्ध स्कन्धरूपता को भी कल्पित रूप देना होगा, तब एक ओर तो घटादि वस्तुओ द्वारा जलाहरणादि क्रियाओ का सम्पन्न होना असम्भव हो जाने से प्राणियो के जीवनयापन की समस्याये जटिल हो जावेगी तथा दूसरी ओर घात-प्रतिघात की स्थिति समाप्त हो जाने से नदियो
बाढ का आना, कही पर आग का लग जाना, बस व रेलगाडी आदि का गिर जाना आदि प्राणियो की सभी विपत्तियो के कारणो का एक साथ लोप हो जायगा जबकि ये सब बाते प्रत्यक्ष सिद्ध है । इसलिए द्वयरणुकादि स्कन्ध जिस प्रकार वास्तविक हैं उसी प्रकार कर्म तथा नोकर्म का आत्मा के साथ सश्लेषरूप सम्बन्ध भी वास्तविक ( सद्भावात्मक ) ही मानना उचित है कल्पित (अभावात्मक) नही ।
इस सब स्थिति को ध्यान मे रखते हुए उपचरित शब्द का प्रकृत मे कल्पित (अभावात्मक) अर्थ करना सङ्गत नही है ।