________________
१७२
वहा तो भेद के दर्शन स्पष्ट होते है, परन्तु एक ही वस्तु मे जो तादात्म्य सम्बन्ध जैनागम मे स्वीकार किया गया है उसका आधार भी उस वस्तु मे स्वरूप और स्वरूपवान तथा प्रदेश और प्रदेशवान के भेद की स्वीकृति ही है।
इस कथन से यह निष्कर्ष निकला कि घी का तादात्म्य घी के साथ न होकर उसके स्वरूप अथवा प्रदेशो के साथ ही है । "क्व भवानास्ते ? स्वात्मनि" इत्यादि स्थानो पर भी स्वात्मा का अर्थ उसका अपना स्वरूप अथवा उसके अपने प्रदेश ही ग्रहण किये गये हैं। इस तरह "आए कहा रह रहे हैं ?" इस प्रश्न का भेदपरक यही समाधान उपयुक्त माना गया है कि "हम अपने स्वरूप अथवा प्रदेशो मे ही रह रहे हैं" अभेदपरक यह समाधान उपयुक्त नही है कि "हम हमो मे रह रहे हैं।" क्योकि अभिन्न एक वस्तु मे आधार और आधेय इन दो अवस्थाओ की स्थिति बिना भेदस्थिति को स्वीकार किये नही बनती है । इसका कारण यह है कि जो आधार है वह आधेय नही है और जो आधेय है वह आधार नहीं है। तथा यह बात निश्चित है कि उक्त तादात्म्य सम्बन्ध मे भी आधाराधेयभाव का बोध होता है। इसलिये प० फूलचन्द्रजी का यह कथन कि “घी का वास्तविक आधार घी ही है" इसी रूप मे सगत होता है कि घी का वास्तविक आधार उसका स्वरूप अथवा उसके प्रदेश ही हैं ।
इस तरह यह वात अत्यन्त स्पष्ट हो जातो है कि एक वस्तु मे भी जब स्वरूप और स्वरूपवान का अथवा प्रदेश और प्रदेशवान का भेद विवक्षित होता है तभी वहाँ पर तादात्म्य सम्बन्ध की स्थापना होती है । इसके अतिरिक्त जव तक उसमे