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अभेद दृष्टि रहा करती है तब तक वहाँ तादात्म्य सम्बन्ध की स्थापना भी अयुक्त है । तात्पर्य यह है कि तादात्म्य सम्वन्ध अभिन्न एक वस्तु मे हमे भेद का दर्शन कराने वाला है । यही कारण है कि तादात्म्य का अर्थ आगम मे भेदाभेद ही स्वीकार किया गया है । इससे यह निष्कर्ष निकल आता है कि तादात्म्य और सयोगादि सम्बन्ध भेद परक ही सिद्ध होते है और जब तादात्म्य सम्वन्ध सयोगादि सम्बन्धो की तरह भेदपरक ही सिद्ध होता है तब तादात्म्य सम्बन्ध ही वास्तविक है सयोगादि सम्बन्ध वास्तविक नही है कल्पित हो है - ऐसा मानना अयुक्त ही है । इतना अवश्य है जहाँ तादात्म्य सम्बन्ध अखण्ड एक वस्तु मे स्वरूप और स्वरूपवान का तथा प्रदेश का प्रदेशवान का भेद करने पर निष्पन्न होता है वहाँ सयोगादि सम्बन्ध स्वभावतः प्रथग्भूत दो आदि वस्तुओ मे निष्पन्न होते है अर्थात् तादात्म्य जहाँ अभेद मे भेद का दर्शन कराता है वहाँ सयो - गादि भेद मे अभेद के दर्शन कराते है ।
यद्यपि समयसार आदि आध्यात्मिक ग्रन्थो मे एक तादात्म्य सम्बन्ध को छोडकर शेष दो आदि वस्तुओ के आश्रय से निष्पन्न सयोगादि सम्वन्धो का निषेध किया है परन्तु जहाँ जिन आध्यात्मिक ग्रन्थो मे उक्त सयोगादि सम्बन्धो का निषेध किया है वहा उन्ही आध्यात्मिक ग्रन्थो मे उन सयोगादि सम्बन्धो की सत्ता भी स्वीकार की गई है उन्हे कल्पित नही माना गया है जैसा कि प० फूलचन्द्र जी मानना चाहते है । इसलिए विचारणीय बात केवल इतनी ही है कि आध्यात्मिक ग्रन्थो मे क्यो तो सयोगादि सम्बन्धो का निषेध किया है और क्यो उन्हे स्वीकार किया है ? और इस पर विचार करने से यह बात समझ मे आ जाती है कि समयसार आदि आध्यात्मिक