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इस विवेचन से यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि समयसार आदि ग्रन्थो मे जितना भी विवेचन मिलता है उसमे यही दृष्टि रही है कि जो प्राणी अपने से पृथक् अथवा अपृथक रूप में विद्यमान परपदार्थो मे अहकार अथवा ममकार करता रहता है वह ससार मे ही भ्रमण करता रहता है उसके ससार का कभी विच्छेद होने वाला नही है और जो प्राणी उन परपदार्थों में अपने अहकार और ममकार को समाप्त कर देता है वह ससार परिभ्रमण का उच्छेद करके मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार अखण्ड एक वस्तु मे स्वरूप और स्वरूपवान तथा प्रदेश और प्रदेशवान का भेद दिखलाकर जो तादात्म्य सम्बन्ध की स्थापना की जाती है वह तथा उसके आधार पर माने जाने वाले आधाराधेयभाव व उपादानोपादेयभाव आदि सम्बन्ध जिस प्रकार सद्भूतता को लिये हुए हैं उसी प्रकार दो आदि स्वतन्त्र वस्तुओ मे पाये जाने वाले आधाराधेयभाव व निमित्तनैमित्तिकभाव आदि सम्बन्ध भी सद्भुतता को लिये हुए ही है। इनमे केवल इतना ही अन्तर स्वतन्त्र अपने अस्तित्व (सद्भूतता) के निर्माण मे जो पदार्थ परस्पराश्रित है उनका तो तादात्म्य सम्बन्ध होता है और स्वतन्त्ररूप से अस्तित्व (सद्भतता) को प्राप्त पदार्थो का सयोग सम्बन्ध हुआ करता है। इस तरह सयोग सम्बन्ध को कयन मात्र, असत्य या असद्भुत नही समझना चाहिये।
प० फूलचन्द्र जी के पूर्वोकृत व थन मे और भी जो यह लिखा है कि "बहुत से मनीपी यह मानकर कि इससे व्यवहार का लोप हो जायगा, ऐसे कल्पित सम्बन्धो को परमार्थभूत मानने की चेष्टा करते हैं, परन्तु यही उनकी सबसे बडो भूल है