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अहमेदं एदमह अहमेदस्सेव होमि मम एद । अण्ण ज परदव्व सचित्ताचित्त मिस्स वा ।।२।। आसि मम पुवमेद अहमेद चावि पुवकालह्मि । होहिदि पुणोवि मज्झ अहमेद चावि होस्सामि ॥२६॥ एव तु असभूदं आदवियप्प करेदि समूढ़ो। भूदत्थ जाणन्तो ण करेदि दु त असमूढो ।॥२७॥ अण्णाणमोहिदमदो मज्झमिण भणदि पुग्गल दव्व । बद्धमबद्ध च तहा जीवो बहुभाव सजुत्तो । २८॥ सवण्हणाणादिट्ठो जीवो उव प्रोगलक्षणोणिच्च । कह सो पुग्गलदन्वी भूदो ज भरणसि मज्झमिण ॥२६॥ जदि सो पुग्गलदम्बी भूदो जीवत्तमागद इदर । तो सक्का वुत्तु जे मज्झमिण पुग्गल दव्व ॥३०॥
इन गाथाओ का भाव यह है कि जो जोव अपने से भिन्न जितना भी सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त (मिश्र) पदार्थ समूह है उसके साथ 'मैं यह हूँ', 'यह मैं हूँ', 'ये मेरा है', 'मैं इसका हूँ इस प्रकार वर्तमान रूप और इसी प्रकार भूत तथा भविष्यद् प असत्य विकल्प करता रहता है वह अज्ञानी है और जो अपनो तथा पर की वास्तविक (स्वतन्त्र) स्वरूप स्थिति को समझ लेता है वह ज्ञानी है । जब तक जीव की बुद्धि मोहकर्म से आच्छादित रहती है तव तक ही वह बद्ध तथा अवद्ध पुद्गल द्रव्य मे अहभाव और ममभाव किया करता है। चूंकि सर्वज्ञ के ज्ञान मे जीव नित्य उपयोग स्वरूप ही प्रतिभासित हुआ है अत वह पुद्गल द्रव्यरूप कैसे हो सकता है ? यदि जीव पुद्गल द्रव्यरूप हो जाता व पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य रूप हो जाता तो कहा जा सकता था कि पुद्गल द्रव्य मेरा है ।