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क्योकि इस भूल के सुधरने से यदि उनको व्यवहार का लोप होकर परमार्थ की प्राप्ति होती है तो अच्छा ही है। ऐसा व्यवहार का लोप भला किसे इष्ट नही होगा। इस ससारी जीव को स्वय निश्चय स्वरूप बनने के लिये अपने मे अनादिकाल से चले आ रहे इस अज्ञानमूलक व्यवहार का ही तो लोप करना है उसे और करना ही क्या है ? वास्तव में देखा जाय तो यही उसका परम ( सम्यक् ) पुरुपार्थ है इसलिये व्यवहार का लोप हो जायगा इस भ्रान्तिवश परमार्थ से दूर रह कर व्यवहार को ही परमार्थ समझने की चेष्टा करना अनुचित है।"
प० फूलचन्द्र जी के इस कथन पर मैं यह कहना चाहता हूँ कि पूर्व विवेचन के अनुसार सयोगादि सम्बन्धो के विषय मे सद्भतता और असद्भतता को लेकर मेरी प० जी के साथ यद्यपि मतभिन्नता पायी जाती है तो भी प० जी के उक्त कथन की कई वातो मे मेरा उनके साथ मतैक्य है। इसलिये मतभेद और मतैक्य की स्थिति को उपयोगी समझकर मैं यहा स्पष्ट कर रहा हूँ।
(१) ५० जी की तरह मैं भी यह मानता हूँ कि जो लोग परमार्थ से दूर रहकर व्यवहार को हो परमार्थ समझने की चेष्टा करते है वे अज्ञानी हैं । परन्तु इस विषय मे मेरा प० जी के साथ मतैक्य का कारण यह नही है कि एक सद्भत और दूसरा असद्भूत ( कथनमात्र, असत्य या काल्पनिक ) है बल्कि मतैक्य का कारण यह है कि प० जी ने अपने कथन मे परमार्थ से निश्चय का अर्थ ग्रहण किया है और यह निर्विवाद है कि व्यवहार अपने आप मे सद्भूत होते हुए भी कभी निश्चयरूप नही होता है।