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Tags का वास्तविक आधार मान लिये जाने पर उनकी यह मान्यता ही समाप्त हो जायगी कि " एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ जो सयोग सम्बन्ध या आधाराधेयभाव कल्पित किया जाता है उसे अपरमार्थभूत ही जानना चाहिये । "
यहां यह बात अवश्य ध्यान मे रखनी चाहिये कि प० फूलचन्द्र जी अपरमार्थभूत का अर्थ कल्पित ही करते है । लेकिन यदि वे अपरमार्थभूत का अर्थ पराश्रितरूप कर लेते है तब कोई विरोध नही रह जाता है । इतना अवश्य है कि इस तरह पराश्रित सयोगादि सम्बन्धो की वास्तविकता सिद्ध हो जाती है जो उन्हे अभीष्ट नही है ।
प० फूलचन्द्र जी दो आदि वस्तुओ के आश्रय से सत्ता प्राप्त सयोग, आधाराधेयभाव और निमित्तनैमित्तिकभाव आदि सम्बन्धो को केवल कल्पना का विपय मान कर एक वस्तु के आश्रय से सत्ता प्राप्त तादात्म्य सम्बन्ध को ही वास्तविक मानने का आग्रह करते है जैसा कि उन्होने लिखा है- "माने गये सम्बन्धो मे एक मात्र तादात्म्य सम्बन्ध ही परमार्थभूत है इसके सिवा निमित्तादि की दृष्टि से अन्य जितने भी सम्बन्ध कल्पित किये गये है उन्हे उपचरित अतएव अपरमार्थभूत ही जानना चाहिये ।"
प० जी इस कथन द्वारा घी का घी के साथ तादात्म्य सम्बन्ध स्वीकार करके "घी का आधार घी ही है" ऐसा मान रहे हैं, परन्तु इसमे विचारणीय बात यह है कि जब घी स्वय एक अखण्ड वस्तु है तो उसमे तादात्म्य सम्बन्ध भी कैसे बन सकता है ? क्योकि कोई भी सम्बन्ध, फिर भले ही वह तादात्म्य ही क्यो न हो, भेद के आधार पर ही बनता है । दो आदि वस्तुओ मे जिन सम्बन्धो को स्वीकार किया गया है