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केवल ज्ञान स्वभाव मीमासा प्रकरण ) निरर्थक हो जायगा तथा दूसरी तरफ जैन-सस्कृति मे स्वीकृत सम्पूर्ण तत्त्वव्यवस्था ही छिन्न-भिन्न हो जायगी। यह सब कुछ न हो, इसके लिए यदि आत्मा के ज्ञान और अन्य सभी पदार्थों मे विद्यमान ज्ञयज्ञायक भाव तथा प्रमाणप्रमेयभाव आदि सम्बन्धो को पं० फूलचन्द्रजी वास्तविक मान लेते है तो फिर दो आदि वस्तुओ मे यथा सम्भव पाये जाने वाले सयोग, आधाराधेयभाव तथा निमित्त नैमित्तिक भाव आदि सम्बन्धो की वास्तविकता को कैसे अस्वीकृत किया जा सकता है ? यह वात तो है कि तादात्म्य सम्बन्ध की निष्पत्ति एक वस्तु के आश्रय से होती है और अन्य सयोगादि सम्बन्धो को निष्पत्ति दो आदि वस्तुओ के आश्रय से हुआ करती है लेकिन इतने मात्र भेद के कारण एक को सद्भूत व वास्तविक और दूसरे को असद्भूत व अवास्तविक कह देना युक्ति सगत नही है दोनो ही अपने-अपने ढग से सद्भुत है और वास्तविक है। इसको वात अवश्य है एक की सद्भुतता और वास्तविकता मे एकाश्रयता रहने से निश्चयनय का विषय है
ओर दूसरे की सद्भुतता और वास्तविकता मे अनेकाश्रयता रहने से व्यवहारनय का विपय है। कथन मात्र या कल्पना मात्र दोनो मे से कोई नही है।
शब्द और अर्थ मे वाच्यवाचक भाव रूप सम्बन्ध पाया जाता है लेकिन दोनो का यह सम्बन्ध यदि अवास्तविक है तो शब्दो द्वारा प्रतिपादन न हो सकने के कारण न कोई वक्ता रह जायगा और न कोई श्रोता रह जायगा इसी प्रकार न कोई लेखक रह जायगा न कोई पाठक रह जायगा । पाठक स्वय विचार करे।