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लेकिन इसमे तथ्याश होते हुए भी मुझे मजबूर होकर यह कहना पडता है कि वस्तु तत्त्व का सही निर्णय करने के लिए यह कथन उपयोगी साधन नही है, क्योकि इसमे अधूरापन विद्यमान है । यही कारण है कि जैनतत्त्वमीमासा मे इसी के आधार पर एकागी दृष्टिकोण का प्रतिपादन होने के कारण वह स्वय मीमासा का विषय बन गई है ।
मेरे इस कथन का तात्पर्य यह है कि प० फूलचन्द्रजी ने अपने उल्लिखित कथन मे जो यह कहा है कि जीव की ससार और मुक्ति दोनो अवस्थाये वास्तविक हैं तथा कर्म और आत्मा का सश्लेषरूप सम्बन्ध उपचरित है - इसमे उपचरित शब्द से दो अर्थो का ग्रहण हो सकता है एक तो यह कि कर्म और आत्मा कभी सश्लिष्ट ही नही होते इसलिए इन दोनो मे सश्लेषसबन्ध का सद्भाव कल्पित है और दूसरा यह कि कर्म और आत्मा ये दोनो सश्लिष्ट तो होते हैं लेकिन यह सश्लेष दो आदि पदार्थों मे होने के कारण इसमे एकाश्रयता का अभाव रहता है इसलिए उपचरित शब्द से पुकारा जाता है ।
इन दोनो अर्थों मे से प० जी को यदि पहला अर्थ अभीष्ट है तो इसमे निम्नलिखित आपत्तिया उपस्थित होती है
(१) पहली आपत्ति यह है कि कर्म और आत्मा के सश्लेषरूप सम्बन्ध को कल्पित मानने से आगम का विरोध है क्योकि आगम से कर्म और आत्मा के सश्लेषरूप सम्बन्ध को ऐसा उपचरित नही माना गया है कि वह असद्भावात्मक होकर बिल्कुल कल्पित हो । इस बात को मैं आचार्य अमृतचन्द्र की समयसार टीका के " न जातुरागादि निमित्तभावम्" इत्यादि क्लशपद्य के आधार पर पहले ही बतला चुका हूँ । इस कलश