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"जीव को ससार और मुक्त अवस्था है और वह वास्तविक है इसमे सन्देह नहो। पर इस आधार से कर्म और आत्मा के मश्लेप रूप सम्बन्ध को वास्तविक मानना उचित नहीं है । जीव का ससार उसकी पर्याय में है और मुक्ति भी उसी की पर्याय मे ही है । ये वास्तविक हैं और कर्म तथा आत्मा का सश्लेप-सम्बन्ध उपचरित है। स्वय सश्लेप-सम्बन्ध यह शब्द ही जीव और कर्म के पृथक-पृथक होने का ख्यापन करता है । इसीलिए यथार्थ अर्थ का ख्यापन करते हुये शाषकारो ने यह वचन कहा है कि जिस समय आत्मा शुभ भावरूप से परिणत होता है उस समय वह स्वय शुभ है, जिस समय अशुभ भाव रूप से परिणत होता है उस समय वह स्वय अशुभ है और जिस समय शुद्ध भावरूप से परिणत होता है उस समय वह स्वय शद्ध है। यह कथन एक ही द्रव्य के आश्रय से किया गया है दो द्रव्यो के आश्रय से नहीं, इसलिए परमार्थभूत है और कर्मों के कारण जीव शुभ या अशुभ होता है और कर्मों का अभाव होने पर वह शुद्ध होता है यह कथन उपचरित होने से अपरमार्थभूत है, क्योकि जब दोनो द्रव्य स्वतन्त्र है और एक द्रव्य के गुण धर्म का दूसरे द्रव्य मे सक्रमण होता नही, तव एक द्रव्य मे दूसरे द्रव्य का कारणरूप गुण और दूसरे द्रव्य मे उसका कर्मरूप गुण कसे रह सकता है ? अर्थात् नही रह सकता।"
( जनतत्वमीमासा पृष्ठ १८-१९ विषय प्रवेश प्रकरण )
प० फूलचन्द्रजी का जो यह कथन मैने उद्धृत किया है यदि उस पर ध्यान दिया जाय तो मालूम होगा कि उन्होंने उसमे जैनतत्त्वमीमासा पुस्तक की पूरी भूमिका बतलादी है।