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गाथा का तीसरा भाव यह है कि कोई भी कार्य हमेशा अपने उपादान के रूप मे ही प्रगट होता है निमित्त के रूप में दापि प्रगट नही होता । जैसे उपादान होने के कारण घट हमेशा मिट्टी के रूप मे ही प्रगट होता है निमित्तभूत कुम्हार, चक्र आदि के रूप मे कभी प्रगट नही होता ।
गाथा का चौथा भाव यह है कि यदि उपादान मे विवक्षित कार्यरूप से परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता विद्यमान हो तो निमित्तो का सहयोग मिलने पर उससे उस विवक्षित कार्य की उत्पत्ति हो सकती है अन्यथा नही । जैसे वालुका मिश्रित मिट्टी में घट निर्माण की स्वाभाविक योग्यता विद्यमान नही है तो कुम्हार, चक्र आदि निमित्त उसमे घट निर्माण की योग्यता को कदापि उत्पन्न नही कर सकते हैं वे तो केवल मिट्टी को घटरूप से परिणत होने मे सहयोग मात्र दे सकते हैं ।
इस प्रकार देखने मे आता है कि उक्त गाथा से यह अर्थ ध्वनित नही होता कि कार्य की उत्पत्ति उपादान मे अपने आप ( निमित्त के सहयोग की अपेक्षा के बिना ) ही हो जाया करती है निमित्त वहा अकिंचित्कर ही बना रहता है |
इसलिये प० फूलचन्द्रजी उक्त गाथा द्वारा जो कार्य की उत्पत्ति मे निमित्तो की अकित्करता सिद्ध करना चाहते है सो उनका यह प्रयास निरर्थक ही समझा जाना चाहिये क्योकि यदि मिट्टी कुम्हार आदि निमित्तो के सहयोग के बिना अपने आप ही घटरूप परिणत हो सकती है तो फिर इसके लिये कुम्हार आदि निमित्तो को जुटाने की क्या आवश्यकता रह जाती है ? इसी प्रकार निमित्तो के सहयोग के बिना ही उपादान यदि विवक्षित कार्यरूप परिणत होता है तो आगम मे परिणमन