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जीवो और पुद्गलों में एक वैभाविकी शक्ति भी है
समस्त जीवो मे एक वैभाविकी शक्ति भी स्वत सिद्ध रूप में विद्यमान है जिसके बल पर ही जीव अनादिकाल से पुद्गलद्रव्य के साथ बद्धता को प्राप्त होकर रहता आया है। ऐसी शक्ति पुद्गलद्रव्य मे भी जैन दर्शन द्वारा स्वीकृत की गयी है क्योकि उसके पुद्गलद्रव्य मे स्वीकार किये बिना जीव का पुद्गल द्रव्य से वन्ध को प्राप्त होना असम्भव था। यही कारण है कि पचाध्यायीकार ने जीव और पुद्गल दोनो मे उक्त वैभाविकी शक्ति के सद्भाव का स्पष्ट उल्लेख किया है जो निम्न प्रकार है"अयस्कान्तोपलाकृष्टसूचीवत्तद्वयो पृथक् । अस्ति शक्तिविभावाख्या मिथो बन्धाधिकारिणी ।।२-४५।।
अर्थ-चुम्बक पत्थर द्वारा आकृष्ट सुई के समान जीव पुद्गल दोनो द्रव्यो मे पृथक-पृथक विभाव नाम की शक्ति विद्यमान है जो जीव और पुद्गल के परस्पर वन्ध का कारण है।
यह विभाव शक्ति भी एक प्रकार का भव्यत्व भाव ही है क्योकि शक्ति, योग्यता, भव्यत्व और उपादानता ये सब एकार्थवाची शब्द है। इसलिये इस दृष्टि से प्रत्येक जीव और कर्मवर्गणा तथा नोकर्मवर्गणारूप पुद्गल ये सभी भव्यरूपता को प्राप्त हो रहे हैं।
एक भव्यत्व ऐसा है जो केवल पुद्गल द्रव्यो मे ही रहता है और जिसके वल पर सभी पुद्गल द्रव्य यथा काल स्कन्धरूपता को प्राप्त होते रहते हैं और यया काल विछुडते भी रहते हैं।