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कथन का सार यह है कि सम्पूर्ण जीवो मे पूदगलद्रव्य के सयोग से विभावरूप परिणमन करने की योग्यता स्वरूप स्वत सिद्ध अनादि-निधन विभाव शक्ति विद्यमान है। इस विभाव शक्ति के बल पर प्रत्येक जीव अनादिकाल से पुद्गलद्रव्य के सयोग से विभावरूप परिणमन करता आया है व इसी आधार पर प्रत्येक जीवो को 'ससारी' सज्ञा प्राप्त हुई है। ये ही ससारी जीव अपनी-अपनी भव्यत्व या अभव्यत्व शक्तियो के आधार पर दो भागो मे विभक्त हो गये है तथा इनमे से जो अभव्य जीव है वे सभी अनादिकाल से तो ससारी है ही, लेकिन अनन्तकाल तक ससारी ही वने रहने वाले है। भव्यजीवो मे से अभी तक बहत से भव्यजीव तो साधनो की अनुकूलता पाकर अपना ससार नष्ट कर चुके हैं तथा बहुत से भव्यजीव साधनो की अनुकूलता प्राप्त करते हुए अपना ससार नष्ट करते जा रहे है। इस तरह भव्य जीवो द्वारा अपना-अपना ससार नष्ट करने को यह प्रक्रिया अनादिकाल से चलती आयी है और अनन्तकाल तक चलती जायगी, कभी इसका अन्त होने वाला नही है । जीटो का बद्धस्पृष्ट और अबद्धस्पृष्ट रूप से विवेचन
जिन जीवो ने अपना ससार नष्ट कर दिया है उन्हे मुक्त सज्ञा जैनागम प्रदान की गयी है इस तरह अभी तक जितने जीव मुक्त हो चुके है उन सबको आकाश, धर्म, अधर्म और काल की तरह पूर्वोक्त प्रकार अवद्धस्पृष्ट जीवद्रव्य समझना चाहिये क्योकि वे भी आकाश, धर्म, अधर्म और काल द्रव्यो की तरह दूसरी वस्तुओ के साथ स्पृष्ट होकर तो रह रहे है फिर भी मुक्त दशा को प्राप्त हो जाने के कारण वे अव कभी किसी वस्तु के साथ मिल कर एक पिण्ड का रूप धारण करने वाले नही है