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ज्ञानावरण कर्मरूप परिणत होती है व दर्शनावरण कर्म रूप परिणत होने की योग्यता रखने वाली कार्माणवर्गणा ही योग
निमित्त से आत्मा के साथ सम्वन्ध करके दर्शनावरण कर्म रूप परिणत होती है इसलिए विवाद इस बात मे नही है, परन्तु इससे ज्ञानावरणादि कर्मों की कार्याणवर्गणाओ का जीव के साथ वधने मे योग अकिंचित्कर कैसे सिद्ध हो सकता है। जवकि प्रत्येक कार्माणवर्गणा योग के सद्भाव मे ही आत्मा के साथ बन्ध को प्राप्त होती है व योग के अभाव मे कभी बन्ध को प्राप्त नही होती है । यह एक आश्चर्य की बात है कि एक ओर तो उपर्युक्त कथन मे स्वय प० फूलचन्द्रजी योग को कार्माणवर्गगाओ का आत्मा के साथ ववने मे निमित्तरूपसे कारण स्वीकार करते है और दूसरी ओर उस बन्ध मे योग को अकिंचित्कर भी मानते है । इस विषय पर आगे विस्तृत रूप से विचार किया जायगा | यहाँ पर प० जी के उपर्युक्त कथन को उद्धृत करने
मेरा मुख्य अभिप्राय इतना ही है कि उनकी उक्त विचारधारा के आगे इतना और जोडना है कि एक जाति की वर्गणा के पुगल वहाँ से पृथक् होकर दूसरी जाति की वर्गणा मे भी मिल जाते हैं तथा इस तरह पहली जाति की वर्गणा के रूप मे छोड - कर उस दूसरी जाति की वर्गणा के रूप को धारण कर लेते है ।
बद्ध स्पृष्टता और अवद्ध स्पृष्टता का उपसंहार
ऊपर किये गये कथन का सार यह है कि आकाश द्रव्य, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और सभी काल द्रव्य ये सब अनादि काल से अवद्ध स्पृष्ट स्थिति को धारण किये सतत इसी अवद्ध स्पृष्ट स्थिति मे ही रहने
हुए
हैं और आगे भी वाले है । जीव नाम