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या मिध्यादर्शन आदि का नाश करते जाते हैं फिर भी भव्य जीवो का कभी अन्त होने वाला नही है ।
या
प्रश्न - जो भव्यजीव भव्य होकर भी कभी मुक्ति या सम्यग्दर्शनादिक को प्राप्त नही होगे अथवा ससार मिथ्यादर्शनादिक का नाश नही करेंगे उन्हे भव्य कहना असगत क्यो नही है
?
उत्तर- भविष्यत् शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार काल के जिन समयो मे भविष्यत् से वर्तमान होकर भूत होने की योग्यता है उन्हे ही भविष्यत् सज्ञा प्रदान की गयी है तो जो भविष्यत् समय कभी भी वर्तमान होकर भूत होने वाले नही है उन्हें जिस प्रकार भविष्यत् कहना असगत नही है उसी प्रकार जो भव्य जीव भव्य होकर भी कभी मुक्ति या सम्यग्दर्शनादिक को प्राप्त नही होगे अथवा ससार या मिथ्यादर्शनादिक का नाश नही करेंगे उन्हे भव्य कहना भी असगत नही है ।
तात्पर्य यह है कि “भविष्यतीति भव्य " इस व्युत्पर्त्य के गर्भ मे दो अर्थ समाये हुए हैं - एक तो “भवितु योग्य भव्य " इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो मुक्ति या सम्यग्दर्शन प्राप्त करने अथवा ससार या मिथ्यादर्शन का नाश करने की योग्यता रखता है वह भी भव्य है और दूसरा “भवितु शक्य भव्य इस व्युत्पत्ति के अनुसार जा मुक्ति या सम्यग्दर्शन प्राप्त करने अथवा ससार या मिथ्यादर्शन का नाश करने की सामर्थ्य रखता है वह भी भव्य है । व्याकरणशास्त्र मे योग्यता और सामर्थ्य दोनो के अर्थ मे निम्न प्रकार से अन्तर वतलाया गया है ।
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व्याकरणशास्त्र मे क्रयार्थक कृ धातु के दो रूप पाये जाते हैं - एक 'क्रेय' और दूसरा 'क्रय्य' । इन दोनो की व्युत्पत्ति