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शुद्धि प्रयोग ( प्रयत्न ) जन्य है अत यह सादि ही सिद्ध होती है । यहा पर इस दृष्टान्त का समन्वय कर लेना चाहिये-कि स्वर्ण पाषाण मे रहने वाले स्वर्ण की अशुद्धि तो अनादि है और शुद्धि सादि है।
ऊपर मैंने समस्त ससारी जीवो को भव्य और अभव्य इन दो वर्गों में विभक्त करके भव्यत्व और अभव्यत्व को क्रमश शुद्धि शक्ति और अशुद्धिशक्ति का नाम देकर शुद्धिशक्ति और अशुद्धिशक्ति के विषय मे आप्तमीमासा की कारिका 88 और १०० तथा इनकी टीका अष्टशती और अष्टसहस्री के आधार पर विस्तार से विवेचन किया है। अव प्रकरण के लिये उपयोगी होने के कारण प० फूल चन्द्रजी की विचारधारा को लेकर इस सम्बन्ध मे थोडा और विचार किया जाता है।
प० फूलचन्द्र जी ने आप्तमीमासा कारिका १०० का अर्थ करते हुए जो व्याख्यान किया है वह निम्न प्रकार है___"यहा पर जो ये दो प्रकार की शक्तिया कही गयी है उन द्वारा प्रकारान्तर से उपादानशक्ति का ही प्रतिपादन कर दिया गया है। जीवों मे ये दो प्रकार की शक्तिया होती है। उनमे से अशद्धि नामक शक्ति की व्यक्ति तो अनादिकाल से प्रति समय होती आ रही है जिसके आश्रय से नाना प्रकार के पुद्गल कर्मों का बन्ध होकर कामादि रूप भाव ससार की सृष्टि होती है। जो- अभव्य जीव है उनके इस शक्ति की व्यक्ति अनादि-अनन्त है और जो भव्यजीव हैं उनके इस शक्ति की व्यक्ति अनादि होकर भी सान्त है।"
( जैनतत्त्वमीमासा पृष्ठ ६८-६९ )