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१२१ विद्यमान अपाक्य शक्ति की व्यक्ति ( अपक्व अवस्था में ही बना रहना) अनादि है उसी प्रकार नियत ससारी जीव मे स्वभावत' विद्यमान शुद्धिशक्ति की व्यक्ति ( शुद्ध अवस्था मे पहुँच जाना) सादि जानना चाहिये व नियत ससारी जीव मे स्वभावत विद्यमान अशुद्धि शक्ति की व्यक्ति (अशुद्ध दशा मे ही बना रहना ) अनादि जानना चाहिये ।
भावार्थ-उपर्यक्त पाक्य शक्ति और अपाक्य शक्ति तथा शुद्धि गक्ति और अशुद्धि शक्ति इन सवका अपने-अपने स्थान मे सद्भाव तो स्वभावत होने से अनादि है व अपाक्य शक्ति तथा अशुद्धि शक्ति की व्यक्ति ( विकास ) भी अनादि है लेकिन पाक्य शक्ति और शुद्धि शक्ति की व्यक्ति ( विकास ) सादि है ।
इस सब प्रतिनियत व्यवस्था को वस्तु स्वभाव का खेल ही समझना चाहिये इसमे तर्क का सहारा लेना व्यर्थ है-यह वात स्वामी समन्तभद्र के "स्वाभावोऽतर्कगोचर" वाक्य से स्पष्ट हो जाती है। अष्टशती और अष्टसहस्री मे इस वाक्य का जो अर्थ किया है वह निम्न प्रकार है।
"कुत शक्ति प्रति नियम इति चेत् तथा स्वभावत्वादिति ब्रम । नहि भावस्वभावा पर्यनुयोक्तव्या , तेषा मतर्कगोचरत्वात् ।"
अर्थ-अमुक जीव मे तो शुद्धिशक्ति है और अमुक जीव मे अशुद्धिगक्ति है-इत्यादि रूप से जो दोनो शक्तियो को प्रतिनियतता का प्रतिपादन किया गया है इसमे उन शक्तियो की प्रतिनियनता का कारण क्या है यह प्रश्न यदि उपस्थित किया जाय तो ग्रन्थकार कहते है कि उस-उस वस्तु का स्वभाव