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शून्यता का प्रसंग उपस्थित हो जायगा। तो फिर इन तीनो विकल्पो को छोड कर कौनसा विकल्प जैनियो का मान्य है ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि स्वामी समन्तभद्र के "जोवास्ते शुद्ध्यशुद्धित" इस वचन के अनुसार जैनियो ने जीवो को शुद्धि शक्ति वाले और अशुद्धि शक्ति वाले इस तरह दो भेदरूप स्वीकार किया है । इस तरह शूद्धिशक्ति वाले जीवों को मुक्ति प्राप्त होती है और अशुद्धि शक्ति वालो का ससार बना रहता है। शुद्धिशक्ति और अशुद्धिशक्ति के प्रतिनियम का आधार
ऊपर जो अष्टशती और अष्टसहस्री का उद्धरण दिया गया है उसमे यह स्पष्ट किया गया है कि समस्त ससारी जीव समान रूप से अशुद्ध है अर्थात् समस्त संसारी जीवो की चैतन्यशक्ति का वैभाविक शक्ति के आधार पर कर्मों के सहयोग से समान रूप से काम-क्रोधादिरूप रूपविकारी परिणमन हो रहा है और यह भी स्पष्ट किया गया है कि उन समस्त ससारी जीवो मे से बहुतो मे तो स्वभावत शुद्धि शक्ति (शुद्ध होने की योग्यता) विद्यमान है और उनसे अतिरिक्त शेष जीवो मे स्वभावत्त ही अशद्धिशक्ति ( शुद्ध होने की योग्यता का अभाव या विपरीत योग्यता का सद्भाव) विद्यमान है। अव यहा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि बहुत से ससारी जीवो मे तो शुद्धिशक्ति विद्यमान है और शेप ससारी जोवो मे अशुद्धिशक्ति विद्यमान है-इस प्रतिनियम का आधार क्या है इस प्रश्न का समाधान स्वामी समन्तभद्र ने ही आप्तमीमासा मे कारिका १६ के आगे कारिका १०० मे शुद्धिशक्ति और अशुद्धिशक्ति का स्पष्टीकरण करते हुए किया है । कारिका १०० निम्न प्रकार है