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निमित्तनैमित्तिकभाव के आधार पर कार्यकारणभाव व्यवस्था की सगति हो जाने पर भी उसका कुछ उपयोग नही होता है अत इसमे भी स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष परिणमन की तरह कार्यकारण व्यवस्था पर विचार करना आवश्यक नहीं है। लेकिन एक ऐसा भी स्वपरसापेक्ष परिणमन होता है जिसमे निमित्त नैमित्तिकभाव के आधार पर विद्यमान कार्यकारणभाव व्यवस्था पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। स्वपरसापेक्ष परिणमन मे उपादानोपादेयभाव के आधार पर विद्यमान कार्यकारणभाव की व्यवस्था भी जहा उपयोगी होती है वहा उस पर भी विचार करना आवश्यक हो जाता है जैसे बालुका के मिश्रण से रहित मिट्टी से ही घट का निर्माण हो सकता है बालुका मिश्रित मिट्टी से नहीं, इसी तरह भव्य ही मुक्ति पा सकता है अभव्य नही-इत्यादि रूप से लोक मे और आगम में विचार किया जाता है । इस पर विशेष विचार न करके निमित्ताश्रित कार्यकारणभाव व्यवस्था पर ही यहा विचार किया जा रहा है।
इसके सम्बन्ध मे सर्वप्रथम ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करता हूं जिसमे परसापेक्षता विद्यमान रहने के कारण यद्यपि निमित्तनैमित्तिकभाव के आधार पर कार्यकारण व्यवस्था का सद्भाव रहता है परन्तु उसकी कुछ उपयोगिता नही है । इनमे प्रथमत' आकाश द्रव्य का उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है ।
__ आकाश द्रव्य का उदाहरण आकाश द्रव्य का स्वभाव आत्मा के स्वपरप्रकाशक स्वभाव की तरह स्व और विश्व के अन्य सभी पदार्थों को अवगाहित करने का (अपने अन्दर समा लेने का) है और चूकि