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प्रमाण मान लिया गया है वहाँ जैन-दर्शन मे दर्शनोपयोग को प्रमाणता और अप्रमाणता की परिधि से वाहर रक्खा गया है । इसका कारण यह है कि जैनदर्शन मे स्वपरव्यवसायी ज्ञान को प्रमाण माना गया है और जो ज्ञान स्वव्यवसायी होते हुए भी परव्यवसायी नही होता उसे अप्रमाण माना गया है। इस तरह ये दोनो अवस्थायें ज्ञानोपयोग की ही हआ करती है अत. ज्ञानोपयोग तो प्रमाण और अप्रमाण रूप होता है लेकिन दर्शनोपयोग चूकि स्वपरव्यवसायी नही होता इसलिये तो प्रमाणरूप नही है और वह केवल स्वव्यवसायी भी नही होता अत' अप्रमाण रूप भी नही है। इतना अवश्य है कि ज्ञानोपयोग को उत्पत्ति मे अनिवार्य कारण होने की वजह से उसका (दर्शनोपयोग का) जैनदर्शन मे कम महत्व नही आँका गया है।
विश्व को जैन-दर्शन मे, जैसा कि पूर्व मे वतलाया जा चुका है, छह प्रकार के द्रव्यो मे विभक्त कर दिया गया है(१) अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता वाले अनन्त जीव द्रव्य (२) अणु और स्कन्ध रूप पुद्गल द्रव्य, (३) एक धर्म द्रव्य (४) एक अधर्म द्रव्य, (५) एक आकाश द्रव्य और (६) अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता वाले असख्यात काल द्रव्य । इन सब द्रव्यो को समूदाय रूप से विश्व नाम से पुकारा गया है क्योकि विश्व शब्द का अर्थ 'सर्व' होता है और उक्त सव द्रव्यो के अतिरिक्त विश्व मे कुछ शेप नही 'नही' रह जाता है। विश्व को जगत भी कहते है क्योकि ये सभी द्रव्य अपने-अपने स्वरूप को न छोडते हुए परिणमनशील है।
उक्त सभी द्रव्य प्रति समय अपने-अपने नियत स्वभाव के अनुरूप कार्य करते रहते है-यह भी पूर्व मे बतलाया जा