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अवसर पर जिस इन्द्रिय द्वारा अपने प्रतिनियत रूप से पदार्थ आत्मप्रदेशो मे प्रतिविम्बित होता है उस अवसर पर उसी इन्द्रिय द्वारा प्रतिनियत रूप मे ही पदार्थ प्रतिभासित होता है । श्रुत ज्ञान मतिज्ञानपूर्वक ही हुआ करता है अत श्रुतज्ञान से होने वाले पदार्थज्ञान में आत्मा के प्रदेशो मे पदार्थ के प्रतिविम्बित होने की आवश्यकता आगम में नहीं बतलायी गयी है । अवधि ज्ञानी जीव के अवधि दर्शनावरण और अवधि ज्ञानावरण कर्मों का एक साथ क्षयोपशम रहा करता है इसलिए उसके आत्मप्रदेशो मे उसी रूप से यथासमय प्रतिनियत पदार्थ प्रतिविम्बित होते हैं और तब उसी रूप से प्रतिनियत पदार्थों का ज्ञान अवधि ज्ञानी को हुआ करता है । मन पर्ययज्ञान यद्यपि ईहामति ज्ञानपूर्वक होता है परन्तु जिस प्रकार श्रुतज्ञान में मतिज्ञान साक्षात् कारण होता है उस प्रकार ईहामतिज्ञान मन पर्ययज्ञान मे साक्षात् कारण नही होता है अत मेरी समझ के अनुसार यहाँ ऐसा मानना चाहिये कि ईहामतिज्ञान के लिए आत्मप्रदेशो मे जो पदार्थ प्रतिविम्ब कारण होता है वही पदार्थ प्रतिविम्ब मन पर्ययज्ञान मे कारण होता है । यहाँ प्रसंगानुसार इतना विशेष समझ लेना चाहिये कि सर्वज्ञ के आत्मप्रदेशो में जो पदार्थ प्रतिविम्ब पडता है उसे केवल दर्शन नाम से मति ज्ञानी के आत्मप्रदेशो मे जो पदार्थ प्रतिविम्व पडता है उसे इन्द्रियापेक्ष होने के कारण यथायोग्य चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन नामो से तथा अवधिज्ञानी के आत्मप्रदेशो मे जो पदार्थ प्रति विम्व पडता है उसे अवधिदर्शन नाम से आगम में पुकारा गया है ।
यदि आत्मप्रदेश मे पडे हुए पदार्थ प्रतिविम्व को ही दर्शन मान लिया जाता है तो आगम मे दर्शन को जो सामान्य ग्रहण, निराकार, अव्यवसायात्मक और निर्विकल्पक शब्दो से