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द्रव्यानुयोग (वस्तु विज्ञान) की दृष्टि से परोक्षज्ञान क्यो नही कहना चाहिये ? अथवा जिस प्रकार ईहा आदि ज्ञानो को प्रत्यक्षज्ञान कहा गया है उसी प्रकार स्मृति आदि ज्ञानो को भी प्रत्यक्षज्ञान क्यो नही कहना चाहिये ?
उत्तर-यह ठीक है कि जिस प्रकार धारणा आदि ज्ञानपूर्वक स्मृति आदि ज्ञान होते हैं उसी प्रकार अवग्रह आदि ज्ञानपूर्वक ईहा आदि ज्ञान होते है परन्तु स्मृति आदि ज्ञानो को जो प्रत्यक्षज्ञान न कहकर परोक्षज्ञान कहा गया है वह इसलिये नही कहा गया है कि वे ज्ञान धारणा आदि ज्ञानपूर्वक होते है किन्तु इसलिये कहा गया है कि वे पदार्थदर्शन के असद्भाव मे होते हैं। चूकि ईहा आदि ज्ञान पदार्थदर्शन के असद्भाव मे न होकर पदार्थदर्शन के सद्भाव मे ही होते हैं अत उन्हे परोक्ष न कह कर प्रत्यक्ष कहा गया है। यही बात मन पर्ययज्ञान के सम्बन्ध मे भी जान लेना चाहिये । अर्थात् मन पर्ययज्ञान यद्यपि ईहाज्ञानपूर्वक होता है परन्तु पदार्थदर्शन के सद्भाव मे होता है अत उसे प्रत्यक्षज्ञान कहा गया है।
यहा पर प्रसग पाकर मैं इतना और कह देना चाहता हैं कि अवग्रह ज्ञान के पश्चात् ईहाज्ञान होना हो चाहिये ऐसा नियम नहीं है । ईहाज्ञान वही पर हो सकता है जहा अवग्रह के पश्चात् उस ज्ञान मे सशय उत्पन्न हो जावे। यदि अचग्रह स्वय ' अवायात्मक रूप से उत्पन्न हुआ हो अथवा अचग्रह होकर तत्काल ज्ञान समाप्त हो जावे तो संशय उत्पन्न नहीं होगा। इसी प्रकार सशय के पश्चात् भी ज्ञान ईहारूप भी हो सकता है, अवायरूप भी हो सकता है या सयशरूप ही बना रह सकता है। इसी प्रकार ईहाज्ञान के पश्चात् भी ज्ञान अवायरूप भी हो सकता है, ईहारूप भी बना रह सकता है अथवा पुन सशय की