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चुका है । अर्थात् आकाश द्रव्य समस्त द्रव्यों को सतत अपने अन्दर समाये हुए हैं, सभी काल द्रव्य ममस्त द्रव्यो को प्रतिक्षण उनकी अपनी-अपनी सभाव्य पर्यायो के रूप मे वर्णन करा रहे हैं, धर्म द्रव्य जीवो और पुद्गलो को हलन-चलन रूप किया करते समय उस क्रिया मे सतत सहायक हो रहा है, अधर्म द्रव्य जीवो और पुद्गलो को उस हलन चलन रुप क्रिया के रुकने के समय उममे सतत सहायक हो रहा है, सभी पुद्गल द्रव्य अशुद्ध जीव द्रव्यो के साथ और परस्पर एक-दूसरे पुद्गल के साथ सतत मिलते और विछुडते रहते हैं तया सभी जीव द्रव्य सपूर्ण द्रव्यो कोअपनी-अपनी योग्यता के विकास के अनुसार सतत देखते और जानते रहते है । जीवो की इस देखने और जानने रूप प्रवृत्ति को ही जैन-दर्शन मे क्रमश दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग कहा गया है। इसका ही तात्पर्य, जैसा कि पूर्व में बतलाया जा चुका है, यह है कि प्रत्येक जीव को देखने और जानने रूप दो पृथक्पृथक् शक्तियाँ है और यही कारण है कि दोनो शक्तियो को ढकने वाले दर्शनावरण और ज्ञानावरण दो पृथक-पृथक कम जैनकर्म सिद्धान्त में स्वीकार किये गये है। दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग आत्मा की इन्ही दोनो शक्तियो के पृथक्-पृथक् विकास रूप परिणमन है ।
अब विचारणीय वात यह है कि आत्म प्रदेशो मे पदार्थ के प्रतिविम्ब पड़ने से अतिरिक्त दर्शनोपयोग और क्या हो सकता है ? तो विचार करने पर ऊपर के कथन से अर्थात् दर्शनोपयोग के प्रमाणता और अप्रमाणता की परिधि से बाहर होने पदार्थ ज्ञान मे पदार्थ प्रतिविम्ब की अनिवार्य आवश्यकता होने व पदार्थज्ञान तथा पदार्थ प्रतिविम्ब मे अन्तर होने आदि से यही निर्णीत होता है कि आत्म-प्रदेशो मे पदार्थ का प्रतिविम्वित होना ही दर्शनोपयोग है-ऐसा जानना चाहिये । इस प्रकार जव