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आगे फिर व लिखते है
"यद्यपि नियमसार मे आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वपरसापेक्ष और परनिरपेक्ष इन दो प्रकार की पर्यायो का निर्देश किया है पर वहा उनके उक्त कथन का यह अभिप्राय नहीं है कि द्रव्यों की शुद्ध पर्यायो मे काल द्रव्य निमित्त नही है किन्तु वहा उनके उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि जीवो और पुद्गलो की अशुद्ध अवस्था में प्रत्येक पर्याय के निमित्तनैमित्तिकभाव से प्राप्त हुए जो अलग-अलग निमित्त होते हैं ऐसे निमित्त द्रव्यो की शुद्ध पर्यायो मे नही पाये जाते है इसलिये द्रव्य की शुद्ध पर्यायें परनिरपेक्ष होती है।"
प० जी के इस कथन से यह सकेत मिलता है कि उन्हे भी परिणमन के स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय ऐसे दो भेद स्वीकार हैं और यही कारण है कि परिणमन के परनिरपेक्ष और स्वपरसापेक्ष ऐसे दो भेद स्वीकार करते समय उनके सामने यह समस्या उपस्थित हई है कि काल द्रव्य को आगम मे वस्तु के परनिरपेक्ष और स्वपरसापेक्ष दोनो प्रकार के परिणमनो मे निमित्तरूप से स्वीकार किया गया है इसलिये इस आधार पर यदि काल द्रव्य को परनिरपेक्ष परिणमन मे निमित्तरूप से स्वीकार किया जाता है तो फिर उसकी परनिरपेक्षता ही समाप्त हो जायगी। इस प्रकार इस समस्या का समाधान करने के लिये प० जी ने वह कथन किया है जिसमे उन्होने यह बतलाया है कि निमित्तनैमित्तिकभाव से प्राप्त होने वाले अन्य निमित्तो की निमित्तता और कालद्रव्य की निमित्तता मे अन्तर पाया जाता है। हम नही कह सकते है कि प० जी की दृष्टि मे वह अन्तर क्या है ? इसलिये आवश्यक जान कर यहा पर वह अन्तर दिखलाया जा रहा है।