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भाव सम्बन्ध विशिष्टता भी परम्परया ग्रन्थरचना मे निमत्तता को प्राप्त हो जाती है ।
इस प्रकार किसी भी स्वपरसापेक्ष कार्य की उत्पत्ति के विषय मे कार्यकारणभाव का विचार करने पर यह फलित होता है कि विवक्षित कार्यपरिणतियोग्यता सम्पन्न उपादान कों उसकी उस कार्यरूप परिणति मे कर्तारूप निमित्तकारण यथासम्भव करण आदि उल्लिखित निमित्तकारणों का सहयोग प्राप्त कर अपना सहयोग प्रदान करता है और तब उपादान को आदि देकर यथावश्यक सम्पूर्ण निमित्तों की अनुकूलता यदि हो जाती है तो विवक्षित कार्य की उत्पत्ति हो जाती है या फिर उपादान अथवा उल्लिखित निमित्तो में से एक अथवा अनेक या सभी की अपनी-अपनी योग्यता में जिस प्रकार की हीनाधिकरूप विशेषता पायी जाती है उसी प्रकार से कार्य के रूप मे भी अन्तर हो जाया करता है अथवा यदि उपादान विवक्षित कार्य परिणति योग्यता सम्पन्न नही होता है तो सम्पूर्ण निमित्तों का सहयोग प्राप्त रहने पर भी कार्योत्पत्ति नही होती है या उपादान के विवक्षित कार्यपरिणति योग्यता सम्पन्न होते हुए भी यदि उल्लिखित निमित्तो मे कमी अथवा उनका अभाव या बाधक निमित्तों का सद्भाव कार्योत्पत्ति में प्रतिकूल वन कर उपस्थित हो जाता है तो भी उस कार्य की उत्पत्ति नहीं हो पाती है।
उपर्युक्त प्रक्रिया पर यदि सूक्ष्मता के साथ विचार किया जाय तो समझ में आ सकता है कि वह प्रक्रिया अनुभव, इन्द्रिय प्रत्यक्ष और युक्ति से संगत है । इसमें एक द्रव्य की दूसरे द्रव्यरूप परिणति अथवा एक द्रव्य के गुणो का दूसरे द्रव्य में प्रवेश होने की आशंका करना व्यर्थ है क्योंकि उपादान और