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है उसमे उपादान के साथ-साथ उससे भिन्न कर्ता, करण आदि के रूप मे परवस्तुयें भी कार्य के प्रति निमित्तरूप से करण होती हैं और चूंकि निमित्ताधीन कार्यकारणभाव स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष कार्यो मे नही पाया जाता है क्योकि वहा उपादान से भिन्न वस्तुयें कर्ता, करण आदि के रूप मे निमित्तरूप से कारण नहीं होती हैं अत वहा पर केवल उपादानोपादेयभाव के आश्रय से ही कार्यकारणभाव बनता है । इस विषय को पूर्व मे स्पष्ट किया ही जा चुका है ।
समयसार ३४५ से ३४८ गाथाओ की टीका के अन्त मे भी आचार्य अमृतचन्द्र ने निम्नलिखित कलश काव्य लिखा है
"व्यावहारिकदृशैव केवल कर्तृ कर्म च विभिन्न मिष्यते । निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते कर्तकर्म च सदैकमिष्यते ॥२१० || "
इसका अर्थ यही है कि व्यावहारिक दृष्टि अर्थात् निमित्तनैमित्तिकभावरूप पराश्रितपने की दृष्टि से कर्ता और कर्म भिन्न-भिन्न ही रहते हैं और निश्चयदृष्टि अर्थात् उपादानोपादेयभावरूप स्वाश्रितपने की दृष्टि से कर्ता और कर्म सतत एक रूप ही रहा करते है । इसका आशय यह है कि निमित्तरूप कर्ता कभी विवक्षित कार्यरूप परिणत नही होता अत निमित्तकर्ता और कर्म सदा भिन्न ही रहा करते है और उपादानरूप कर्ता ही कार्यरूप परिणत होता है अत उपादान कर्ता और कर्म सदा एकरूप हो रहा करते हैं ।
यहा पर यदि कोई कहे कि पराश्रित होने से निमित्तनैमित्तिकभाव हेय है और स्वाश्रित होने से उपादानोपादेयभाव उपादेय है इसलिये निमित्तनैमित्तिकभाव के ऊपर से दृष्टि