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इन दोनों के आधार पर उक्त प्रकार से कार्यकारणभाव, कर्तकर्मभाव और कारक व्यवस्था बनती है-ऐसा जानना चाहिये तथा जो कार्य अथवा परिणमन अपनी उत्पत्ति मे पर (निमित्त) की अपेक्षा रहित केवल स्व ( उपादान ) की अपेक्षा रखने वाले है उनमे कार्यकारणभाव, कर्त कर्मभाव और कारक व्यवस्था उक्त प्रकार से केवल उपादानोपादेयभाव के आधार पर बनती है ऐसा जानना चाहिये ।
निमित्तों की विविधता जो स्वय (आप) विवक्षित कार्यरूप परिणत होता है उसे उपादान कहते है क्योकि उपादान शब्द' उप' उपसर्गपूर्वक आदानार्थक 'आ' उपसर्गविशिष्ट 'दा' धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका व्युत्पत्त्यर्थ परिणमन को स्वीकार या ग्रहण करने वाला अर्थात् कार्यरूपपरिणत होने वाला होता है। इसी प्रकार जो स्वय (आप) विवक्षित कार्यरूप तो परिणत न हो परन्तु उपादान की उस विवक्षित कार्यरूप परिणति मे सहायक अवश्य हो अर्थात् जिसके सहयोग के विना उपादान कार्यरूप परिणत न हो उसे निमित्त कहते है क्योकि निमित्त शब्द 'नि' उपसर्ग पूर्वक स्नेहार्थक 'मिद' धातु से निप्पन्न हुआ है जिसका व्युत्पत्त्यर्थ उपादान की कार्य परिणति मे स्नेहन करने वाला अर्थात् महायता पहुँचाने वाला होता है । ऐसे निमित्त उपादान को विवक्षित कार्यरूप से परिणत होने मे यथायोग्य भिन्न-भिन्न रूप में होते हुए विविध प्रकार के हुआ करते है । अर्थात् जितने भी स्वपरसापेक्ष कार्य हआ करते है उनकी उत्पत्ति मे अपनेअपने ढग से यानि यथावश्यक और यथासम्भव कर्ता, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण रूप से सहयोग प्रदान करती हुई पर ( अन्य ) वस्तुयें निमित्तकारण कही जाती हैं । ऐसी