________________
'५०
उपादानोपादेयभाव के आधार पर कर्तृ कर्मभाव और कारकव्यवस्था स्वीकार कर ली जाती है तो कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण का आरोप विवक्षित एक उपादानभूत वस्तु मे ही किया जाता है।
स्वपरसापेक्ष परिणमन मे कार्यकारणभाव की विवेचना का आधार उपादानोपादेयभाव और निमित्तनैमित्तिकभाव दोनो ही सिद्ध होते हैं, इसलिये वहा पर जो कार्यकारणभाव, कर्तृकर्मभाव और कारक व्यवस्था स्वीकार की जाती है उसमे निमित्तनैमित्तिकभाव और उपादानोपादेयभाव दोनो ही आधार हो जाते है। इस तरह स्वपरसापेक्ष परिणमन मे कर्ता और कर्म को छोडकर करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण कारको का आरोप विवक्षित उपादानभूत वस्तु से भिन्न उन वस्तुओ मे भी पृथक्-पृथक् यथायोग्य रूप से किया जाता है जो वस्तुये वहा पर उपादान की कार्यरूप परिणति में अपनेअपने ढग से सहायक हुआ करती है। कर्मकारक का आरोप उपादान की कार्यपरिणति मे ही यहा पर भी हुआ करता है क्योकि उपादानोपादेयभाव और निमित्तनैमित्तिकभाव का कर्मरूप विषय एक और वह भी उपादान की कार्यरूप परिणति ही हुआ करती है। कर्ताकारक का आरोप यहा पर उपादानोपादेयभाव के आधार तो उपादान स्वय मे और निमित्तनैमित्तिकभाव के आधार पर उपादान से भिन्न उस वस्तु मे किया जाता है जो वस्तु उपादान की उस कार्यरूप परिणति मे स्वतन्त्र रूप से सहायक हुआ करती है।
इस प्रकार जो कार्य अथवा परिणमन अपनी उत्पत्ति मे स्व ( उपादान ) के साथ-साथ पर (निमित्त) की अपेक्षा रखने वाले होते हैं उनमे उपादानोपादेयभाव और निमित्तनैमित्तिकभाव