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'इस तरह प्रत्येक वस्तु के अपने-अपने स्वभाव में होने वाले उत्पाद और व्यय की यह प्रतिनियतता उस उस स्वभावकी ध्रुवता की निशानी है क्योकि उत्पाद तथा व्यय रूप परिणमन होते हुए भी उल्लिखित प्रतिनियतता का सद्भाव रहने के कारण उस परिणमन मे कभी भी स्वभावरूपता का अभाव नही होता है ।
जैसे रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पुद्गल द्रव्य के स्वत. सिद्ध और प्रतिनियत्त स्वभाव है । इन चारो ही स्वभाबो मे परिणमित होने की अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् स्वत सिद्ध योग्यता पायी जाती है जिसके आधार पर उक्त चारो स्वभावो मे सतत उत्पाद और व्यय रूप परिणमन होता रहता है । चूकि प्रत्येक स्वभाव मे होने वाला उनका अपना अपना वह परिणमन उस उस स्वभाव के साथ प्रतिनियत रूप मे ही हुआ करता है यानि वह परिणमन उस उस स्वभाव की अपनी-अपनी परिधि मे ही होता है अत उनमे प्रतिक्षण उत्पाद और व्यय रूप से परिणमन होते हुए भी उनका अपना रूपपना, रसपना, गन्धपना और स्पर्शपना सतत बना ही रहा करता है ।
इसी प्रकार ज्ञायकपनेरूप देखने व जानने की शक्ति के रूप मे स्वत सिद्ध और प्रतिनियत दो स्वभाव आत्मा के है तथा इन दोनो ही स्वभावो मे परिणमित होने की अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् स्वत सिद्ध योग्यता है जिसके आधार पर उन स्वभावो मे सतत उत्पाद और व्यय रूप परिणमन होता रहता है । चूंकि उन स्वभावो मे होने वाला अपना-अपना परिणमन उन स्वभावो के साथ प्रतिनियत रूप मे ही हुआ करता है यानि वह परिणमन उस उस स्वभाव की अपनी अपनी परिधि में ही होता है अत उनमे प्रतिक्षण उत्पाद और व्ययरूप परिणमन