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उत्पत्ति और विद्यमान पदार्थों के विनाश का प्रसंग उपस्थित होता है।
इस प्रकार पचाध्यायी और समयसार के उल्लिखित उद्धरण हमे स्पष्ट बतला रहे है कि प्रत्येक वस्तु का अपनाअपना स्वरूप जैसा स्वत सिद्ध है वैसा प्रतिनियत ( स्व को छोड कर अन्य किसी भी वस्तु मे नही पाया जाने वाला) भी
वस्तु और वस्तुस्वरूप में परिणमनशीलता भी है
जिस प्रकार वस्तुस्वरूप स्वतःसिद्ध और प्रतिनियत है उसी प्रकार वह परिणमनशील भी है। परिणमनशीलता का अर्थ वस्तु की उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मकता है । पचाध्यायी के प्रथम अध्याय के निम्नलिखित पद्यो द्वारा इस बात का समर्थन होता है। वरत्त्वस्ति स्वतःसिद्ध यथा तथा तत्स्वतश्वपरिणामि । तस्मादुत्पादस्थितिभगमय तत्सदेतदिह नियमात् ॥८६ ।। वस्तु यथा परिणामि तथैव परिणामिनो गुणाश्चापि । तस्मादुत्पादव्ययद्वयमपि भवति हि गुणानां तु ||११२।।
पहले पद्य में वस्तु को स्वतःसिद्ध और उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यरूप मे परिणामी बतलाया गया है तथा दूसरे पद्य मे वस्तु के गुणो अर्थात् स्वरूप को उसी प्रकार परिणामी स्वीकार किया गया है।
पहले पद्य का अर्थ है कि वस्तु जिस प्रकार स्वतःसिद्ध है उसी प्रकार वह परिणामी भी है इसलिये वह उत्पाद, व्यय और ध्रुवता को प्राप्त हो रही है।