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पं० फूलचन्द्रजी और उनसे मतभेद रखने वाले दोनो ही आगम के उक्त दोनो कथनो को प्रमाण मानते है । यही कारण है कि प० फूलचन्द्र जी ने भी कार्योत्पत्ति के विषय मे उपादान की स्वीकृति के साथ निमित्त की स्वीकृति की घोषणा जैनतत्त्वमीमासा मे की है, परन्तु उन्होने आगम के उपादानपरक और निमित्तपरक कथनो मे समन्वय करने का जो प्रयास किया है वह उनसे मतभेद रखने वालो को अनुभव और युक्ति से गलत जान पडता है । इसे भी आगे स्पष्ट किया जायगा ।
पुस्तक में कुछ अस्पष्ट
गलत और परस्पर विरोधी बातें
(१) जैनतत्त्वमीमासा पुस्तक में कही-कही निमित्त के विषय मे यह भी लिखा है कि वह बलाधान मे निमित्त होता है ।' एक स्थान पर यह लिखा है कि अपने - अपने उपादान के अनुसार कार्योत्पत्ति होने के समय निमित्त बलाधान मे हेतु होता है । परन्तु जब पं० फूलचन्द्रजी निमित्तभूत वस्तु को कार्योत्पत्ति मे अकिचित्कर ही मानते है तो उनका उक्त प्रकार के लिखने मे क्या अभिप्राय है ? इसे स्पष्ट करने का पुस्तक मे कही भी प्रयत्न नही किया गया है ।
(२) प० फूलचन्द्रजी जैनतत्त्वमीमासा मे प्रयुक्त निमित्त तथा हेतु इन दोनो शब्दो के अर्थ मे क्या अन्तर समझते है ? यह मेरी समझ मे नही आया है । लेकिन यह निश्चित है कि दोनो शब्दो का प्रयोग उन्होने अलग-अलग अर्थों मे ही किया है ।
१ देखो जैन तत्त्वमीमासा पृष्ठ ८४ पक्ति २-३ ।
२ देखो जैनतत्त्वमीमामा पृष्ठ ३२ की टिप्पणी ।
३. यह अभिप्राय जैनतत्त्वमीमासा पृष्ठ ३२ की टिप्पणी से निकलता है !