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(३) आगम सम्बन्धी जो उद्धरण प० फूलचन्द्रजी ने अपने पक्ष के समर्थन मे दिये हैं उनका अर्थ करने में उन्होने बहुत सी भूलें भी की हैं । उदाहरण के रूप मे जैनतत्त्वमीमासा पृष्ठ ४१ पर नियमसार गाथा १८३ का अर्थ उन्होने अपनी दृष्टि के अनुसार जीव की लोकान्तगमन योग्यता की पुष्टि के रूप में किया है जवकि गाथा १८४ को ध्यान में रखकर उसका अर्थ जीव की ऊर्ध्वगमन योग्यता की पुष्टि के रूप मे ही होना है। -
(४) इसी प्रकार प० जी कही तो यह लिखते हैं कि कार्य की सिद्धि मे निमित्तो का होना अकिचित्कर है। और कही इससे विपरीत आशय को प्रगट करने वाला ऐसा कथन करते है कि उपादान के ठीक होने पर निमित्त मिलते ही हैं उन्हे मिलाना नहीं पड़ता। एक जगह तो उन्होने निमित्त की कार्यकारिता को सिद्ध करने वाला यह कथन भी किया है कि उनकी ईरण ( गति ) क्रिया की प्रकृष्टता अन्य द्रव्यो के क्रिया व्यापार के समय उनके बलाधान मे निमित्त होती है।।
(५) ५० फूलचन्द्र जी की मान्यता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नही करता यानि एक द्रव्य के परिणमन मे दूसरा द्रव्य सहायक भी नही होता है। इसी मान्यता के आधार पर उनका कहना है कि उपादान के कार्य के अनुकूल व्यापार करने पर जो वाह्य सामग्री उसमे हेतु होती है उसमे निमित्तपने का व्यवहार किया जाता है। परन्तु ५० जी के इस कथन का उनके ऊपर उद्धृत इस कथन से विरोध आता है कि उनकी
१ जैनतत्वमीमांसा पृष्ठ २५२। २ जनतत्त्वमीमासा पृष्ठ २५३ । ३ जनतत्त्वमीमासा पृष्ठ ८४ । ४ जनतत्त्वमीमासा पृष्ठ २५३ ।