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.. (४) सत् वस्तुओ के विनाश के प्रसंग मैं
अथवा सतो विनाश स्यादिति पक्षोऽपि बाधितो भवति । नित्यं यतः कथचिद् द्रव्य सुज्ञे प्रतीयतेऽध्यक्षात् ॥१३॥
अर्थ-सत् का विनाश स्वीकार करने का पक्ष भी इसलिये गलत है कि ज्ञानी जनो को प्रत्येक वस्तु मे कथचित् स्थायीपने का सतत अनुभव होता रहता है।
अन्त मे विषय का उपसहार करते हुए पचाध्यायीकार ने वही पर कहा है--
तस्मा दनेकदूषण दूषित पक्षान निच्छता पुसा । अनवद्यमुक्त लक्षण मिह तत्व चानुमन्तव्यम् ।।१४।।
अर्थ-इसलिये उल्लिखित अनेक दोषो से दूषित पक्षों को न चाहने वाले व्यक्ति को वस्तु का जो निर्दोप लक्षण ऊपर बतलाया गया है उसका ही अनुमोदन करना चाहिये।
इस प्रकार जब किसी भी वस्तु का अस्तित्व स्वीकार करने के लिये उस वस्तु को अनादि, अनिधन, आत्मनिर्भर और अखण्ड मानना आवश्यक है तो यह स्थिति वस्तु को स्वत सिद्ध मानने के लिये वाध्य कर देती है और जव वस्तु को इस तरह स्वत सिद्ध मान लिया जाता है तो इसका निष्कर्ष यही होता है कि वस्तु का अपना निजी स्वरूप स्वत सिद्ध है कारण कि वस्तुस्वरूप की स्वत सिद्धता को छोड़कर वस्तु की स्वत.. सिद्धता और कुछ नही है।