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"जह फलिहमरणी सुद्धो रण सय परिणमइ रायमाईहि । राइज्जदि अण्णेहि दु सो रत्तादोहिं दवेहि ॥३०१।। एव गाणी सुद्धो ण सय परिणमइ रायमाईहि । राइज्जदि अण्णेहि दु सो रागादोहि दोसेहि । ३०२।।"
__इन गाथाओं का अर्थ यह है कि जिस प्रकार शुद्ध (स्वत - सिद्ध निज निर्मल स्वभाव का धारक) स्फटिकमणि परिणमन स्वभाव वाला होते हुए भी स्वय ( अपने आप अर्थात् निमित्तभूत परवस्तु के सहयोग के विना) रक्तादि रूपता को प्राप्त नहीं होता किन्तु अन्य रक्तादि वस्तुओ का सहयोग पाकर ही वह रक्तादि रूपता को प्राप्त होता है उसी प्रकार शुद्ध (स्वत सिद्ध निज ज्ञान स्वभाव का धारक) आत्मा परिणमन स्वभाव वाला होते हुए भी स्वय (अपने-आप अर्थात् निमित्तभूत परवस्तु के सहयोग के विना) रागादिरूपता को प्राप्त नहीं होता किन्तु अन्य रागादि पुद्गल कर्मों का सहयोग पाकर ही वह रागादि रूपता को प्राप्त होता है।
ये गाथाये हमे इस बात का निर्णय करने का उपदेश देती है कि वस्तु मे परिणमन करने की स्वत सिद्ध योग्यता रहते हुए भी उसमे किसी-किसी परिणमन के उत्पन्न होने मे स्व के साथ-साथ पर की अपेक्षा भी स्वभावत रहा करती है। इस विषय को विस्तार से समझने के लिये उक्त गाथाओ की आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा कृत टीका को भी ध्यान से पढना चाहिये। उस टीका मे निवद्ध निम्नलिखित कलश पद्य भी उक्त विषय को समझने में बडे उपयोगी है। "रागादयो बन्धनिदानमुक्तास्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ता । आत्मा परो वा किमु तग्निमित्तमिति प्रणुन्ना पुनरेवमाहु ॥१७४।।