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[बत्तीस]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ षष्ठ अध्याय-दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास इस अध्याय का विषय है। प्रायः सभी दिगम्बरजैनों की यह धारणा है कि दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद ईसापूर्व चौथी शताब्दी में श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के फलस्वरूप हुआ था। किन्तु यह धारणा संशोधनीय है। श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में दिगम्बरश्वेताम्बर-भेद नहीं हुआ था, अपितु दिगम्बर-अर्धफालक-भेद हुआ था। दिगम्बरश्वेताम्बर-भेद तो जम्बूस्वामी के निर्वाण (वीर नि० सं० ६२ = ४६५ ई० पू०) के पश्चात् ही हो गया था। इसका प्रमाण यह है कि उनके निर्वाण के पश्चात् ही दोनों सम्प्रदायों की गुरुशिष्य-परम्परा अलग-अलग हो गयी थी। निर्ग्रन्थसंघ से पहली बार तो श्वेताम्बरसंघ की उत्पत्ति शीतादिपरीषहों की पीड़ा सहने में असमर्थ साधुओं के अचेलत्व को छोड़कर वस्त्रपात्र-कम्बल आदि ग्रहण कर लेने से हुई थी, किन्तु दूसरी बार उससे (निर्ग्रन्थसंघ से) अर्धफालकसंघ का जन्म द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के कारण आहारप्राप्ति में उत्पन्न कठिनाइयों के फलस्वरूप हुआ था। अर्धफालक साधु नग्न रहते थे, किन्तु वायें हाथ पर सामने की ओर आधा वस्त्र लटकाकर गुह्यांग छिपाते थे। इस कारण वे अर्धफालक नाम से प्रसिद्ध हुए।
सप्तम अध्याय-प्रस्तुत अध्याय में यापनीयसंघ की उत्पत्ति के स्रोत एवं काल का अनुसन्धान किया गया है। निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरसंघ) का प्राचीनतम उल्लेख बौद्धों के पिटकसाहित्य (अंगुत्तरनिकाय) एवं अशोक के सप्तम स्तम्भलेख में मिलता है। तथा श्वेतपटसंघ की चर्चा ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के बौद्धग्रन्थ अपदान में उपलब्ध होती है। किन्तु यापनीयसंघ का उल्लेख सर्वप्रथम कदम्बवंशी राजा मृगेशवर्मा के हल्सीताम्रपत्रलेख (४७०-४९० ई०) में हुआ है। इससे पूर्व किसी भी अभिलेख या ग्रन्थ में यापनीयसंघ का नाम नहीं मिलता। इससे निर्णीत होता है कि यापनीयसंघ का उदय उक्त उल्लेख से लगभग ५० वर्ष पूर्व अर्थात् ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ था। डॉ० सागरमल जी ने भी यही माना है। इस संघ का उल्लेख करनेवाले प्रायः सभी शिलालेख एवं इस संघ के बनवाये हुए मंदिर दक्षिण भारत में ही प्राप्त हुए हैं, जो इस बात के प्रमाण हैं कि यापनीयसंघ की उत्पत्ति दक्षिण भारत में हुई थी। इस संघ के साधु प्रायः दिगम्बर-साधुओं के समान नग्न रहते थे, मयूरपिच्छी रखते थे और पाणितलभोजी होते थे, तथापि शीतादिपरीषह सहने में असमर्थ अथवा नग्न रहने में लज्जा का अनुभव करनेवाले या जिनका पुरुषचिह्न विकृत होता था, उन साधुओं के लिए इस संघ में श्वेताम्बरों के समान वस्त्रपात्रादि रखने की अनुमति दी गयी थी। इस प्रकार दिगम्बरों के समान नग्नत्व को छोड़कर इसकी सभी मान्यताएँ श्वेताम्बरीय मान्यताओं के समान थीं। अर्थात् यापनीय भी श्वेताम्बरों के समान
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