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[१२] कर दिया है। इससे इन पदों के परिवर्तन की निरर्थकता स्पष्ट है और साथ ही सौमसेनजी की योग्यता का भी कुछ परिचय मिल जाता है।
(ग) परिवर्तित और अपरिवर्तित मन्त्र । इस अन्य के तीसरे अध्याय में, एक स्थान पर, दशदिक्पालों को प्रसन्न करने के मन्त्र देते हुए, लिखा है। वतोऽपि मुखितकर कुड्ममा सन् "नमोहते भगवते . श्री शांतिनाथाय शांतिफराय सर्वविनमणानाय सर्वरोगापमृत्युविनाशनाय सर्व पर शुद्रोपदयविनाशनाय मम सर्वशास्तिर्मवतु " इत्युचा
इसके बाद पूर्वस्यां दिशि इन्द्रः प्रसीदतु, आग्नेयां दिशि अग्नि प्रसीदतु, दक्षिणस्यां दिशि यमा मशीदतु' इलादि रूप से ये प्रसन्नता सम्पादन कराने वाले दसों मन्त्र दिये हैं। ये सब मन्त्र वेही है भो बासीर-त्रिवर्णाचार में भी दिये हुए हैं, सिई 'उत्तरसां दिशि कुवेर प्रसीदतु' नामक मन्त्र में कुवर की जगह यहाँ 'या ' पद का परिवर्तन पाया जाता है। परन्तु इन मन्त्रों से पहले 'ततोऽपिमुकलितकरकुदमलः सन्' और 'इत्युचार्य के मध्य का.जो मंत्र पाठ है वह मासूरि त्रिवर्णाचार में निम्न प्रकार से दिया हुआ है। गोईत श्रीयाविनाथाय शांतिकराय सर्व शांतिर्मपतु स्वाहा।
समंत्र में जिन विशेषण पयों को बढ़ाकर इसे कार का रूप दिया गया है से लोमसनजी के उस विशेष स्थान का एक नमूना समझना चाहिये जिसकी सूचना उन्होंने अध्याय के अन्त में निन्न पप द्वारा की है
श्री ब्रह्मसार लिमबंध रख भी जैनमार्ग प्रविबुद्धतत्वा । पाचंतु तस्यैष पिशोप शाय एवं विशेषान्मुगिसोमसेन ।