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चतुर्थे दिवसे सायास्त्राताँतर्गत:पुरा। । पूर्वाहवाटिकाषट्कं गोलग इति भापितः ॥१३,२२॥
शुद्धाममतुतिमोजने ल्यनेऽपिया। देवपूजा गुरूपास्तिहोमलेवासु पंचमे ॥ १३-२३ ॥
ये पथ ब्रह्मसूरि-त्रिवर्याचार के जिन पदों को परिवर्तित करके. बनाये गये है वे क्रमशः इस प्रकार है
अन्तशुद्धिस्तु जीवानां भवेत्कालाविलब्धितः । एपामुख्यापिलरकारे पाह्यशुचिरपेक्षते ॥७॥ रजस्वलाचतुम्हि बायादोसर्गतः परं । पूर्वाह टिकापट्कं गोलग इवि भाषितः ।। -१३॥ तस्मिनहनि चोग्या स्थाबुक्क्या गृहकर्मणि । ६षपूजा गुरूपास्तिहोमसेवा पंचमे ॥ ८-१०॥
इन पदों का परिवर्तित पदों के साथ मुकाबला करने से यह सहन ही में मालूम हो जाता है कि पहले पत्र में बो परिवर्तन किया गया है उससे कोई अर्थ-मेद नहीं होता, बल्कि साहित्य की दृष्टि से वह कुछ घटिया जरूर हो गया है। मालूम नहीं फिरे इस पर को बदलने का क्यों परिश्रम किया गया, जब कि इससे पहला 'सुखवांछन्ति' नाम का पच ज्यों का सो उठाकर रखा गया था! इसे. भी उमी तरह पर उठाकर रख सकते थे। शेष दोनों पयों के उत्तरार्ध ज्यों के यों है, सिर्फ पूर्वार्ष बदखे गये हैं और उनकी यह तबदीली बहुत कुछ मही जान परती है। दूसरे पक्ष की तबदीची ने तो कुछ विरोध, भी उपस्थित कर दिया है-ब्रह्मरि ने चौथे दिन रजखना के लान का समय पूर्वाह की घड़ी के बाद कुछ दिन चढे रक्खा पा; परन्तु ब्रह्मसूरि । के अनुसार कथन की प्रतिज्ञा करने वाले सोमसेनजी ने, अपनी इस तबदीनी के द्वारा गोसर्ग की, उक्त छह घड़ी से पहले रात्रि में ही उसका विधान