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[8] मजबूर किया हो-उस वक प्राण. लोग जैन द्विजों अथवा मैनधर्म में दीक्षितों.को 'वर्णानः पाती और.संस्कारविहीनों को 'शद तक कहते. थे; माश्चर्य नहीं जो यह बात नव दीक्षितों को-खासकर विद्वानों कोअसह्य हो उठी हो और उसके प्रतीकार के लिये ही उन्होंने अथवा उनसे पूर्व दीक्षितों ने उपर्युक्त आयोजन किया हो। परंतु कुछ भी हो। इसमें संदेह नहीं कि.उस वक्त दक्षिण मारत में इस प्रकार के साहित्य की-संहिता शास्त्रों, प्रतिष्ठा पाठों और त्रिवर्णाचारों की बहुत कुछ सृष्टि हुई है। एक संधि भ० जिन संहिता, इन्द्रमन्दि संहिता, नेमिचंद्र संहिता, भद्रबाहु,संहिता, आशाधर प्रतिष्ठापाठ, अकसक प्रतिष्ठा पाठ
और जिनसेन त्रिवर्याचार शादि बहुत से अंथ उसी वक्त के.बने हुए हैं। इस प्रकार के सभी उपलब्ध ग्रंथों की सृष्टि विक्रम की प्रायः दूसरी सहसान्दी में पाई जाती है-विक्रम की पहली सहसाब्दी (दसवीं शताब्दी तक) का बना हुमा वैसा एक भी ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं सुना
और इससे यह माना जाता है कि ये ग्रंथ उस जमाने की किसी खास हलचल के परिणाम हैं और इनके कितने ही नूतन विषयों का, जिन्हें खासतौर से लक्ष्य में रखकर ऐसे ग्रंथों की सृष्टि की गई है, जैनियों के प्राचीन साहित्य के साथ प्रायः कोई सम्बन्ध विशेष नहीं है । प्रस्तु, . . .. अन्यका संग्रहत्व। . .
(1) इस त्रिवर्णाचार में सब से अधिक संग्रह यदि किसी संथ का किया गया है तो वह ब्रह्मसूरि का उक्त निवर्णाचार ही है। सोमसेन ने अपने त्रिवर्णाचार की श्लोक संख्या, प्रथके अंत में,२७०० दी है और यह संख्या ३२ अक्षरों की श्लोक. गणना के अनुसार
#नेमिचंद्र संहिवाके रचपिया'नेमिचंद्र' भी एक हस्थ विद्वान थे और वे प्रारि के मानने थे।देखो नेमिचंद्र संहिता की मशस्ति अथवा जैन हितैषी के १२३ भाग का अंकन:४-१५