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[७] कहावत को भी कितने ही देशों में चरितार्थ करता है । यथापित यह अंथ उक्त जिनसेन त्रिवर्णाचारादि की तरह का जासी अंग नहीं है, इसकी रचना प्राचीन बड़े आचार्यों के नाम से नहीं हुई-फिर भी यह अर्धजाली वरूर है और इसे एक मान्य जैन ग्रंथ के तौर पर स्वीकार पारने में बहुत बड़ा संवोध होता है । नीचे इन्हीं सब बातों का दिग्दर्शन कराया जाता है, जिससे पाठकों को इस प्रन्थ के विषय में अपनी मेक सम्मति सिर काने का अवसर मिल सके।
सव से पहले मैं अपने पाठकों को यह मतक्षा देना चाहता है कि उक्त प्रतिज्ञा पचान में जिन विद्वानों के नाम दिये गये हैं उनमें 'महाकलंक से अभिप्राय राजषार्तिक के कर्ता भटाकलंक देव से नहीं है बल्कि प्रकासंक-प्रतिष्ठापाठ (प्रतिष्ठातिक) आदि के कर्ता पूसरे महाकलंक से है जिन्होंने अपने को 'मटाकलंकादेव.' भी सिखा है और जो विक्रम की प्रायः १६ वीं शताब्दी के विद्वान थे। और 'गुणभद्र' मुनि संभवतः बेही मारक गुणभद्र बान परते हैं, नो अंश कर्ता के पद गुरु थे। गुणमद महारक के बनाये हुए 'पूनाकम्प' मामक एक पंथ का उल्लेख मी 'दिगम्बर जैन ग्रंथकर्ता और उनके प्रय नामक सूची में पाया जाता है । होसकता है कि इस ग्रंथ के पाधार
इस निर्याधार में जिनसेन मावि दुसरे विद्वानों के वाक्यों का जिस प्रकार से मोन पाया जाता है, उस प्रकार से राजवानिक के का मकसक देव के बनाये हुए किसी भी प्रथ का आया कोई सोन'नहीं मिलता। हाँ, प्रकर्षक प्रतिष्ठापाठ के कितने ही कपनों *साय विचार के कपनों का मेला तथा सीडश्य जंबर है और कुछ पधादिक दोनों ग्रंथों में समान रूप में भी पाये जाते इससे एक पत्र में महाक " पद का पाच्य क्या है। यह बहुत कुछ स्पट होजाता है।