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[ ] लिखा गया है और जहाँ कहीं दूसरे (शुभचन्द्रादि) विद्वानों के प्रथानुसार कुछ कहा गया है यहाँ पर उन विद्वानों अथवा उनके प्रयों का नाम देदिया गया है।
परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । ग्रंथ को परीक्षादृष्टि से अवलोकन करने पर मालूम होता है कि यह ग्रंथ एक अच्छा खासा संग्रह पंथ है, इसमें दूसरे विद्वानों के देर के ढेर वाक्यों को ज्यों का यो वठा कर या उनमें कहीं कहीं कुछ साधारणसा भवत्रा निरर्थकसा परिवर्तन करके रक्खा गया है, ने वाक्य ग्रंथ के प्रतिपाथ विषय को पुष्ट करने के लिये 'उक्तं च' आदि रूप से नहीं दिये गये, बल्कि वैसे ही ग्रंथ का अंग बना कर अपनाये गये हैं और उनको देते हुए उनके लेखक विद्वानों का या उन ग्रंथों का नाम तक भी नहीं दिया है, जिनसे उठाकर उन्हें रक्खा है। शायद पाठक यह समझे कि ये दूसरे विद्वान् ही होंगे, जिनका उक्त प्रतिक्षा-वाक्यों में उल्लेख किया गया है। परन्तु ऐसा नहीं है-उनके अतिरिक्त और भी बीसियों विद्वानों के शब्दों से ग्रंप का कलेवर बदाया गया है और वे विद्वान् जैन ही नहीं किन्तु अनैन भी हैं। अनेनों के बहुत से साहित्य पर हाथ साफ किया गया है और उसे दुर्भाग्य से जैन साहित्य प्रकट किया गया है, यह बड़े ही खेद का विषय है । इस व्यर्थ की उठा घरी के कारण ग्रंथ की तरतीब भी ठीक नहीं बैठसकी-वह कितने ही स्थानों पर स्खलित अथवा कुछ बेढंगेपन को लिये हुए होगई है और साप में पुनरुक्तियों भी हुई है। इसके सिवाय, काही २ पर उन विद्वानों के विरुद्ध भी कयन किया गया है जितके वाक्यानुसार कथन करने की प्रतिज्ञा अथवा सूचना की गई है और बहुतसा कपन जैन सिद्धांत के विद्ध, अथवा लैनादर्श से गिरा हुआ मी.इसमें पाया जाता है। इस तरह पर यह ग्रंथ एक बड़ा ही विचित्र ग्रंथ जान पड़ता है, और 'कहीं की ईट कहीं का रोड़ा, मानमती ने कुनबा जोगा' वाली