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पर भी प्रकृत विचार में कुछ कपन किया गया हो और इसके भी वाक्यों को बिना नाम धाम के उठा कर रखा गया हो । परन्तु मुझे गुणभद्र मुनि के किसी भी प्रथ के साथ इस ग्रंथ के साहित्य को माँचने का अवसर नहीं मिल सका और इसलिये में उनके ग्रंथ विपय का यहाँ कोई उल्लेख नहीं कर सकूँगा । बाकी चार विद्वानों में से जिनसेनाचार्य तो 'श्रादिपुराण' के कर्ता, स्वामी समन्तभद्र 'रत्नकरण्डक' श्रावकाचार के प्रणेता पं० शाघर' सागार धर्मामृत' आदि के रचयिता और विष प्रसूरि हासूरि-त्रिवर्णाचार' अथवा 'जिनसंहिता सारोदार' के विधाता हुए हैं जिसका दूसरा नाम 'प्रतिष्ठातिलक' भी है। श्राशावर की तरह ब्रह्मसूरि भी गृहस्थ विद्वान थे और उनका समय विक्रम की प्रायः १५वीं शताब्दी पाया जाता है। ये जैन धर्मानुयायी ब्राह्मण थे। सोमसेन ने भी 'श्रीब्रह्मसूरिद्विजवंशरवं','ब्रह्मसूरिसुविप्रेण,' 'श्रीब्रह्मसूरिवरविप्रकवीश्वरेण' आदि पदों के द्वारा इन्हें माह्माण वंश का प्रकट किया है । इनके पिता का नाम 'विजयेन्द्र' और माता का 'श्री' था। इनके एक पूर्वज गोविन्द भट्ट, वो वेदान्तानुयायी ब्राह्मण थे, खामी समन्तभद्र के 'देवागम' स्तोत्र को सुनकर जैनधर्म में दीक्षित होगये ये f । उसी वक्त से इनके वंश में जैनधर्म को बराबर मान्यता चली आई है, और उसमें कितने ही विद्वान हुए हैं।
ब्रह्मसूरि-त्रिवर्णाचार को देखने से ऐसा मालूम होता है कि अ सूरि के पूर्व जैनधर्म में दीक्षित होने के समय हिन्दूधर्म के कितने -डी संस्कारों को अपने साथ लाये थे, जिनको उन्होंने स्थिर हो नहीं रक्खा बल्कि उन्हें मैन का लिवास पहिमाने और त्रिवर्णाचार जैसे ग्रंथों द्वारा उनका जैनसमाज में प्रचार करने का भी आयोजन किया है। संभव है देश काल की परिस्थिति ने भी उन्हें वैसा करने के लिये
+ देखो ठक 'निसंहितासापेदार' की प्रशस्ति ।