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प्रवचन-२६ है, लक्ष्य क्या है, धनोपार्जन किस हेतु से करते हो- इस पर धर्म-अधर्म का आधार है। याद रखिये, आप गृहस्थ हैं, साधु नहीं हैं, यह बात गृहस्थधर्म की हो रही है, साधुधर्म की नहीं। धनोपार्जन के पीछे आपका आशय मात्र भोगविलास नहीं है, धर्म के साधन के रूप में आप धनोपार्जन कर रहे हो, दीनअनाथ जीवों के उद्धार की आपकी दृष्टि है, आपकी स्वयं की एवं आपके परिवार की धर्मआराधना निर्विघ्न होती रहे, यह आपका लक्ष्य है और आप ऊपर बताई हुई चार शर्तों के पालन के साथ धनोपार्जन करते हैं, तो आप की वह व्यवसाय क्रिया भी धर्म ही है।
यदि आपके जीवन का प्रधान पुरुषार्थ धर्म है और उस धर्म पुरुषार्थ के साधन के रूप में धन कमाने का पुरुषार्थ करते हो, तो वह पुरुषार्थ धर्मपुरुषार्थ ही है।
यदि गृहस्थ धनोपार्जन-हेतु व्यवसाय नहीं करेगा तो अपना और अपने परिवार का गुजारा कैसे करेगा? यदि वह बेकार बना रहेगा, धनोपार्जन का पुरुषार्थ नहीं करेगा तो उसका पारिवारिक जीवन क्लेशपूर्ण हो जायेगा। रहने को मकान नहीं होगा, खाने को रोटी नहीं होगी और पहनने को कपड़ा नहीं होगा........तो धर्मपुरुषार्थ भी कैसे करेगा? __ सभा में से : धनोपार्जन करने में कुछ पापाचरण हो ही जाता है, दूसरी बात, धनोपार्जन में परिग्रह का पाप भी है.... फिर धर्म कैसे?
महाराजश्री : सही बात है आपकी, यह संसार ही पापरूप है, छोड़ दो संसार और बन जाओ साधु । साधुजीवन में कोई पाप नहीं करना पड़ेगा। पापों का भय लगता है न? संसार में जीना है, संसार के सुख भोगने हैं और व्यवसाय करना नहीं है, तो क्या भीख माँग कर गुजारा करना है? सद्गृहस्थ कभी भी याचक बनकर नहीं भटकता है। वह तो उचित व्यवसाय करेगा ही। न्यायपूर्ण और अनिन्दनीय व्यवसाय करेगा। वैसा व्यवसाय करने पर जितना अर्थलाभ होगा, उसमें संतोष मानकर गुजारा करेगा। यदि गृहस्थ धनोपार्जन का कोई भी सुयोग्य पुरुषार्थ नहीं करता है तो उसकी समग्र जीवन-व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है। सारी धर्मक्रियाएँ भी स्थगित हो जाती हैं। अर्थपुरुषार्थ में दृष्टि और दिशा दोनों बदलनी होगी :
इसलिए कहता हूँ कि सद्गृहस्थ बनने के लिए आपको सर्वप्रथम अर्थपुरुषार्थ की दिशा और दृष्टि बदलनी होगी। चारों पुरुषार्थ में महत्वपूर्ण पुरुषार्थ है,
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