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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ____ एक बार आपने विद्यालय के भूतपूर्व विद्यार्थी वरिष्ठ विद्वान नेरन्द्र विद्यार्थी का संभाषणोपरान्त परिचय देते हुए कहा - आप संस्कृत भाषा के मूर्धन्य विद्वान म.प्र. विधान सभा के एम.एल.ए. छतरपुर से पधारे नरेन्द्र विद्यार्थी है यह हमेशा विद्या व्यसनी है, इन्हें विद्वान का अहं तो नहीं है पर इनकी विनम्रता पर प्रसन्न होकर सरस्वती इनको खोजकर पास आती है तब से मुझे लगता है - प्रत्येक इंसान को आजन्म विद्यार्थी ही बना रहना चाहिए ऐसा विद्या पिपासु व्यक्तित्त्व ही चलता फिरता विश्व विद्यालय बन सकता है । देवशास्त्रगुरू भक्त साधु सेवा पारायण बड़े पण्डित जी हम सभी विद्यार्थियों को साधु संघों की आगवानी हेतु भेजते, वरिष्ठ विद्यार्थियों को सेवा व्यवस्था एवं कनिष्ठ विद्यार्थियों को वैयावृत्ति का सुयोग्य । अवसर प्रदान कराते, तथा अपने प्राचार्य निवास में ही चौका लगाकर विद्यार्थियों को आहार चर्या सिखलाते प्रवचन सुनने की प्रेरणा हमेशा देते, ऐसा महान गुरू भक्त पण्डित जी नीति और सुभाषित श्लोक सुनाकर भी प्रेरित करते -यथा- हौले शैले न माणिक्य, मौक्तिकंन गजे गजे ।
साधवों न हि सर्वत्र, चन्दनम् न वने वने ॥ विद्यालय संस्थापक पूज्य क्षु. गणेश प्रसाद जी वर्णी के शुभ संस्मरण यथा समय आप अवश्य सुनाकर-विद्या की दुर्लभता और अमूल्यता पर प्रकाश डालते रहते थे । पर्युषण पर्व में प्रवचनार्थ विद्यार्थियों को अन्य स्थानों पर भेजकर प्रोत्साहित करने में आप पूर्ण श्रम करते कराते थे। संस्कृत साहित्य शास्त्री प्रथम वर्ष में मुझे आपको लौकिक एवं धार्मिक शिक्षा गुरू बनाने का सौभाग्य मिला योग्य शिष्य बनकर आपके अतिनिकट बैठने का शुभ अवसर मिला।
__ वर्ष 1993 में प. पू. मुनि श्री निर्णय सागर जी का चातुर्मास मोराजी विद्यालय में चल रहा था, उनका छहढाला विषय पर हृदय ग्राही मार्मिक प्रवचन सुनकर वैराग्य की लहर उठी ब्रह्मचर्य व्रत की प्रबल भावना भी। मैने पूज्य मुनि श्री से निवेदन किया उनकी कृपा प्रसाद से मुझे बीना नगर में पू. मुनि श्री विराग सागर जी महाराज के पास भेजा गया , मैं व्रत लेकर आया तथावत पू. मुनि श्री के पास रहने लगा, आप मुझे संस्कृत में आचार्य करने की भावना रखते थे। पर मेरा वैराग्य मानस प्रबल हो चुका था । अत: मैंने वहीं शिक्षा को स्थगित कर पूज्य आचार्य गुरूदेव विरागसागर महाराज से शिक्षा लेना आरंभ हुआ।
वर्ष 1994 जनवरी 28 को मेरी क्षुल्लक दीक्षा देख आप आनंद विभोर हुए। दीक्षा के बाद मेरा प्रथम आहार आपके ही चौका में हुआ तब मैंने अनुभव किया कि मैं जितने संकोच में डूबा था आप उतने ही प्रसन्नता के अथाह सागर में आज मेरा विद्यार्थी क्षुल्लक बन गया कल मुनि बनकर आत्म कल्याण करते हुए जैन धर्म प्रभावना तथा विद्यालय का नाम रोशन करेगा। ऐसे स्वपरोपकारी महापुरूषों के प्रति मैं कभी कभी सोचता हूँ प्रकृति ऐंसाअन्याय क्यों करती ? जो सत्पुरूषों को हमसे विलग कर देती पर आयुकर्म की प्रकृति का नियम ही कुछ ऐसा है यह जानकर तटस्थ रह जाता हूँ तटस्थ रह जाना स्वस्थ रह जाने का राज तो है पर कृतज्ञता नहीं। अत: ऐसे उपकारी सत्पुरूषों का शुभ नाम एवं कार्यस्मरण कर लेना करा देना उनके द्वारा प्रदत्त उपकारी विद्या और स्मृति का ही परिचय है । कर्त्तव्य निष्ठ ऐसी अमर आत्मा के लिए शुभाशीष। आपकी आत्मा आपको केवल ज्ञान प्रदान करें।
धन्यास्ते मानवा लोके, ये च प्राप्यापदां पराम्। विकृतिं नैव गच्छन्ति, यतस्तो साधु मानस: ॥
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